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सूरीश्वर अने सम्राट'
विद्या विजय जी
१६१६ ऐतिहासिक रास संग्रह भाग १-२
विजय धर्म सूरि (संशोधक)
१६१६ (द्वितीय संस्करण) ऐतिहासिक संग्रह भाग ३
विजय धर्म सूरि
१६२१ ऐतिहासिक रास संग्रह भाग ४
विजय धर्म सूरि और विद्याविजय जी १६२२ प्राचीन गुजरात ना सांस्कृतिक इतिहासनी साधन-सामग्री'
जिन विजय जी १९३३ भारतीय जैन श्रमण-संस्कृति अने लेखन कला
पुण्यविजय जी महाक्षत्रप राजा रुद्रदामाई
विजयेन्द्र सूरि जैन परम्परा नो इतिहास भाग १-२" दर्शन विजय जी, ज्ञान विजय जी, और न्याय विजय जी
१६६० उपर्युक्त पैतीस ग्रन्थों के द्वारा आधुनिक जैन साधुओं ने गुजरात के इतिहास निरूपण में यथाशक्ति योगदान दिया है। इनके अतिरिक्त भी अनेक जैन साधुओं ने अपना-अपना योगदान संस्कृत-प्राकृत पुस्तकों के अन्वेषण-संशोधन-सम्पादन तथा विविध लेख एवं निबंधों के द्वारा दिया है । इस लेख में केवल गुजराती में प्रकाशित पुस्तकों की समालोचना की मर्यादा स्वीकृत करने से अनेक आधुनिक जैन साधुओं का उल्लेख नहीं किया जा सका।
पुस्तकालय संरक्षण और जैन परम्परा पुस्तकालय का भारतीय नाम 'भारती भांडागार' था जो जैन ग्रन्थों में मिलता है। कभी-कभी इसके लिए 'सरस्वती भांडागार' शब्द भी मिलता है। ऐसे भांडागार मन्दिरों, विद्यामठों, मठों, उपाश्रयों, विहारों, संघारामों, राजदरबारों और धनी-मानी व्यक्तियों के घरों में हुआ करते थे। नैषधीय चरित की जिस प्रति के आधार पर विद्याधर ने अपनी प्रथम टीका लिखी थी वह चालुक्य बीसलदेव के भारती भांडागार की थी।
– जार्ज ब्यूलर कृत भारतीय पुरालिपि शास्त्र (हिन्दी अनुवाद) पृ० २०३ से उद्धृत
१. वैसे तो पूरी पुस्तक हीर विजय सूरीश्वर और अकबर के जीवन एवं कार्यों पर प्रकाश डालता है साथ ही तत्कालीन राजकीय एवं सांस्कृतिक परिचय भी
देता है। २ मनि जी ने चारों भागों के आरम्भ में संगहित रासों की कथा दी है। जिनसे अपरिचित शब्दों के मल रासों को समझने में सरलता रहे। कथासार की पाद टिप्पणी में दी गई ऐतिहासिक टिप्पणी-उपयोगी जानकारी प्रदान करती है। अन्त में दी गई, कठिन शब्दार्थ संग्रह आगामी वाचकों के लिए सहायक
होगी। ३. विक्रम की दशवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक के शकवर्ती ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है : साथ ही लेखन पद्धति, ग्रन्थ प्रशस्तियां, सिक्के, शिलालेख, स्थापत्य और गजरात के बाहर के राज्यों के इतिहास में गुजरात से सम्बन्धित विषय, विदेशी साहित्य,प्रसंगों की तिथि वर्ष के साथ आदि सामग्री संशोधन में
उपयोगी मार्गदर्शन देती है। ४. मुख्यतः गुजरात की श्रमण संस्कृति का विस्तृत आलेखन किया गया है यह पुस्तक वास्तव में पठनीय है।
मनि पुण्यविजय जी गजरात के सम्मानीय प्राचीन विद्या के पण्डित थे। प्राकृत के गहन अध्ययनकर्ता एवं अनसन्धानकर्ता मुनि जी लिपि के क्षेत्र में नागरी लिपि के असाधारण ज्ञाता थे। पुस्तकालयों के संशोधन एवं उन्हें व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने में इनका योगदान वास्तव में विशिष्ट है। हस्तलिखित ग्रन्थों की वर्णनात्मक सूची तैयार करने में उनकी धुन और धैर्य और अध्ययन शीलता व्यक्त होती है। संस्कृत-प्राकृत के उनके अनेक सपादन गुरुवर मुनि श्री चतुर विजय जी के साथ हुए हैं-'धर्माभ्युदय' (१९३६) और 'वसुदेव हिंडी' (१९३०-३१) आदि। ६. पूर्णतः ऐतिहासिक इस छोटी पुस्तक में प्राचीन काल में लम्बे समय तक शासन कर चके क्षत्रप राजाओं में प्रमुख राजा रुद्रदामा के राजकीय व्यक्तित्व का
जूनागढ़ का प्रसिद्ध शिलालेख आदि विषयों का घटनामों के साथ वर्णन किया गया है। ७. इन दोनों भागों में १२०० वर्ष के जैन आचार्यों, जैन मुनियों, साध्वियों, राजाओं, सेठ-सेठानियों, विद्वानों, दानियों, विविध वंशों, साहित्य निर्माण, लेखनकला, तीर्थो, विविध घटनाओं आदि का प्रमाण सहित परिचय दिया गया है। जिससे तत्कालीन सांस्कृतिक प्रवाहों का सही ज्ञान मिलता है । अभी अन्य पांच भाग प्रकाशित होने वाले हैं। ये ग्रन्थ जब प्रकाशित होंगे, तब गुजराती भाषा में विशिष्ट नमूना प्रस्तुत करता यह भगीरथ कार्य सीमाचिह्न के समान बन जायेगा। ये भाग जल्दी से जल्दी प्रकाशित हों ऐसी इच्छा है ।
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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