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लक्षण मानकर तुलसी ने अयोध्याकाण्ड में महर्षि वाल्मिकि के श्रीमुख से कहलाया है--
काम मोह मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न द्रोहा॥
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया ॥ 'अपरिग्रह' के समर्थन में तो तुलसी यहां तक कह गए किजहां राम तह काम नहिं, जहां काम नहि राम। एक संग निगसत नहीं, तुलसी छाया धाम ॥ 'द्रव्य अपरिग्रह' के सन्दर्भ में भी तुलसी ने लोकेषणाओं को अत्यन्त सीमित करते हुए कहा है-- 'तुलसी' इतना दीजिये जामें कुटुम्ब अघाइ। मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाई ॥ इस प्रकार तुलसी साहित्य में तथा जैनानुसारी अपरिग्रह भावना में कई स्थलों पर एक रूपता दृष्टिगोचर होती है ।
इसी प्रकार महावीर वाणी में कई स्थानों पर 'सदाचार' की महिमा का बखान किया गया है । आचारहीन जन-भक्ति के क्षेत्र में पदार्पण ही नहीं कर सकते हैं। इसी सदाचार को तुलसी ने श्रीरामचरित मानस में 'गृहस्थ' के लिए 'मर्यादा' के रूप में और भक्तों के लिए वैराग्य के रूपमें प्रतिष्ठित किया है।
(१) उदधीव रदण भरि दो तव विणयं सीलदाणरयणाणं ।
सोतो य ससीलो णिव्वाण मणुत्तरं पत्तो॥-शीलपाहुड जैसे समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ है, वैसे ही आत्मा में तप, विनय, शील, दान रत्न हैं। किन्तु जैसे जल होने पर ही
समुद्र कहा जाता है, वैसे शोल सहित होने पर ही मनुष्य उत्तम पद-निर्वाण प्राप्त करता है । (२) णिज्जावगो य णाणं वादो झाणं चरित्तवाणा ही।
भव सागरं तु भविया तरंति तिहि सण्णि पायेण ॥--मूलाचार जहाज चलाने वाला ज्ञान है, ध्यान हवा है और चरित्र नाव है। इन तीनों के मेल से भव्य जीव संसार-समुद्र से पार हो जाते हैं। (३) भल्लाण वि णासंति गुण जहिं सहु संगु खलेहि--पाहुडदोहा
दुष्ट जनों की संगति से भले पुरुषों के भी गुण नष्ट हो जाते हैं। (४) भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं । --उत्तराध्ययन
चाहे साधु हो या गृहस्थ, यदि सुव्रती व सदाचारी है तो दिव्य गति को प्राप्त होता है। तुलसी ने भी अपने आराध्य श्रीराम में आदर्श गुणों से युक्त पुरुष की कल्पना करते हुए लिखा है ---
चारिउ रूप शील गुण धामा। तदपि अथक सुख सागर रामा ।
इस पद द्वारा तुलसी ने रूप, शील और गुणों का धाम बताकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को शक्ति, शील और सौंदर्य की मूत्ति बना दिया है। इससे महावीर वाणी के मूल भाव की अभिव्यंजना भी स्वयमेव हो जाती है।
___ संसार समुद्र से पार जाने के लिए तुलसी ने उपरोक्त शील सागर श्रीराम के नाम और भक्ति को सुदृढ़ आधार माना है । रामभक्ति के जहाज में चढ़कर ही प्राणी भव सागर पार हो जाता है। अलबत्ता भक्ति के क्षेत्र में तुलसी, ज्ञान की महत्ता को कम न ऑकते हुए भावना को अधिक प्रतिष्ठापित करते हैं।
उन्होंने जीवन के नाट्य मंच पर आने वाले विभिन्न पात्रों के लिए अनेक स्थलों पर आचार-संहिता ही बना दी है। 'मुखिया' का आचरण तुलसी के मत से इस प्रकार का होना चाहिए :--
मुखिया मुख सों चाहिये खान पान कह एक।
पाले पोष सकल अंग, तुलसी सहित विवेक । इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलसी साहित्य में अनेक स्थलों पर महावीर वाणी के दर्शन किए जा सकते हैं । यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि तुलसी ने महावीर जी की विभिन्न वाणियों एवं सिद्धान्तों की बेलों को अपने महाकाव्य के चौखटे में आवेष्ठित 'श्रीरामकथा' की पावन मूत्ति के साथ देश, काल और पात्रानुकूल संवलित' कर दिया है। लेकिन जहां भी ऐसे स्थल आए हैं वहां भगवान् महावीर और गोस्वामी तुलसीदास के वचनामृत उदारता और परोपकारिता के मानवीय मूल्यों से मुखरित हुए हैं।
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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