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उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक व्यक्ति सदा द्वन्द्व, संघर्ष और आन्तरिक युद्ध में जी रहा है। इसका प्रतिफल है-विगत सदी के दो विश्व-युद्ध! वास्तव में बाह्य तो अन्तस् की प्रतिच्छाया मात्र है। विज्ञान ने मनुष्य को शक्ति तो दी है, परन्तु आत्मा छीन ली है; उसने सुख-सुविधा तो बढ़ाई है, परन्तु नींद, विश्राम, शान्ति और आनन्द छीन लिया है उसने दवाइयां तो दी हैं, परन्तु मानवता को युद्ध और विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है । शान्ति की परिभाषा करते हुए ब्रट्रेंड रसेल ने लिखा है कि “एक युद्ध की समाप्ति और दूसरे युद्ध की तैयारी उन दोनों के बीच के अन्तराल को शान्ति कहते हैं।" आइन्सटीन ने कहा था, "मैं तीसरे विश्ययुद्ध के विषय में तो कुछ नहीं कह सकता, पर चौथे विश्वयुद्ध के विषय में अवश्य ही निश्चय पूर्वक कह सकता हूं कि वह पत्थर के हथियारों से लड़ा जाएगा।" यह है जगत् की वर्तमान परिस्थिति और मानव की वस्तु-स्थिति ! आज मानवता बीमार है, रुग्ण है, पागलपन की कगार पर खड़ी है। मनोविश्लेषक युंग ने लिखा है-“मनोचिकित्सकों को अवश्य स्वीकार करना होगा कि 'अहम्' बीमार है, क्योंकि वह समग्र से टूट गया है और मानवता के साथ ही साथ आत्मा से उसका सम्बन्ध विच्छेद हो गया है।"२ वह भोग के पीछे दीवाना है, भोग से जब तृप्ति नहीं मिलती, तो वह दमन की ओर, आत्मपीड़न की ओर, मुड़ता है और इस प्रकार द्वन्द्व-दुःख का शिकार बना हुआ है। पहले इस द्वन्द्व से घबड़ा कर वह ईश्वर की शरण में जाता है परन्तु आधुनिक विज्ञान ने वह काल्पनिक सहारा भी उससे छीन लिया है। अतएव मनुष्य निराधार है और अकेला बादल की भांति हवा पर डोल रहा है, जिसकी न धरती अपनी है, न आकाश ! निराशा में वह अपने आप से झगड़ पड़ता है और अपने आप को ही तोड़ने लगता है। उसकी वृत्ति आत्मघाती हो गयी है। औद्योगीकरण ने जीवन को यान्त्रिक और असहज बना दिया है।
इस दुश्चक्र से निकलने का उपाय भगवान् महावीर के पास है। उनके अनुसार बाहर सहारे की तलाश निरर्थक है। जो भी 'पर' है, वह हमारा सहारा नहीं हो सकता, चाहे वह पदार्थ हो या परमात्मा। आत्मा ही एकमात्र सहारा है। स्वयं को छोड़कर बाहर कोई भी सहारा नहीं हो सकता, अतः सर्वप्रथम बाहर के सभी सहारों का भ्रम-भंग आवश्यक है। दूसरी बात यह कि जीवन जो इतना असहज हो गया है, उसे सहज, स्वाभाविक रूप में लाना आवश्यक है। इसके लिए महावीर ने 'प्रतिक्रमण' का रास्ता सुझाया है। जीवन में जो इतना दुःखद्वन्द्व है, वह गलत अभ्यास (कन्डिशनिंग) का परिणाम है अतएव 'तप' के माध्यम से उसे मिटाकर, फिर सहज स्थिति में लाने की आवश्यकता है। साथ ही, 'ध्यान' के माध्यम से अचेतन मन से उतरकर उसमें अज्ञान के कारण आश्रित संस्कारों, ग्रन्थियों का उच्छेद कर, ग्रन्थियों से मुक्त होना- 'निर्ग्रन्थ होना आवश्यक है और अन्ततः आत्मा में स्थित होना-'सामायिकी'-- यही परम शान्ति आनन्द और मुक्ति का मार्ग है। धर्म का यह स्वरूप पूर्णतः वैज्ञानिक है और विज्ञान के दोषों को दूर करने में सक्षम है । यह धर्म प्रायोगिक है—इसका प्रयोग-स्थल आत्मा है। यह धर्म कर्मकाण्ड या विश्वास (Ritual & Dogma) नहीं, बल्कि मनोचिकित्सा (Psycho-Therapy) का साधन है जिससे पूर्व संस्कारों का क्षय (निर्जरा) और नवीन संस्कारों का आश्रव अवरुद्ध (संवर) हो जाता है, युंग, आदि ने माना है कि अचेतन के प्रति सजग होकर उसे रिक्त करके ही मनुष्य मानसिक ग्रंथियों से मुक्त हो सकता है,-स्वस्थ, शान्त और आनन्दित हो सकता है । इस प्रकार आत्मानुसन्धान ही एकमात्र मार्ग है। जब भीतर शान्ति और आनन्द हो, तो बाहर भी वही विकीर्ण होगा ही, अतएव युद्ध से निवृत्ति का भी यही एकमात्र उपाय है। महावीर के मार्ग पर चल कर ही मानवता युद्ध और विनाश से मुक्त हो शान्ति, शक्ति, आनन्द व मुक्तिलाभ कर सकती है।
१. S. Freud, Civilization and its Discontents, Hogarth Press, 1930 P. Jung, "The psychotherapist must even be able to admit that the ego is ill, for the very reason that it is
cut-off from the whole, and has lost its connection with the mankind as well as the spirit."--Modern Man in Search of Soul, पृ० १४१ फिर देखिए, Ralph Harper, "There are two sources of solitude and its agony : being cut-off from other men and being cut-off from God." The Seventh Solitude, The John Hopkins Press, Baltimore, Marry Land, America. 1965, पृ० १
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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