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महावीर को यह पक्की अनुभूति हो गई थी कि मानव के अधिकारों का हनन उन दानवों ने किया है जिनके मन में धन-संचय भूमि-संचय, सुख-संचय, पद-संचय एवं अधिकार-संचय (परिग्रह) की भावनायें गहराई तक घुसी हुई हैं साथ ही जिनके लिए अपनी उपरोक्त उपलब्धियों के संरक्षण एवं संवर्धन की प्रक्रिया में क्रूरतम, जघन्यतम हिंसा करना, भीषणतम, निकृष्टतम अपराध करना दैनिक जीवन की एक सरलतम बात हो गई है।
महावीर ने जब और भी सूक्ष्मता के साथ इन मानव-अधिकार-हन्ताओं (आततायियों) का नख से शिख तक अवलोकन किया तब उन्हें ऐसी प्रतीति हुई कि ये सब तो अब मानव भी नहीं रह गये अर्थात् मनुष्य का कोई भी सुन्दर लक्षण इनमें शेष नहीं रह गया है अतः उन्होंने तय किया कि मानव अधिकारों की पुनर्स्थापना इनके साथ कठोर एवं क्रूर व्यवहार के द्वारा न करते हुये कोमल एवं अक्रूर व्यवहार के द्वारा करना अधिक श्रेयस्कर रहेगा--इस तरह के व्यवहार से इनका भी कायाकल्प होगा और सर्व-अपहत मानव के समस्त मूल्यवान् एवं आवश्यक अधिकार भी उसे प्राप्त हो जायेंगे और इस तरह मानव-अधिकारों के सौम्य युद्ध को विजयश्री भी प्राप्त होगी।
अस्तु, महावीर ने अधिकार सम्पन्न एवं अधिकार-शुन्य वर्गों के मध्य टकराव की स्थिति का निर्माण न करते हुये, वर्ग-विद्वेष एवं वर्ग-संघर्ष की शरण में न जाते हुए तत्कालीन समग्र समाज को एक पूर्ण इकाई के रूप में देखते हुए साथ ही साथ समाज के प्रत्येक घटक को लक्ष्य में रखते हुये मन, वाणी और कर्म की अहिंसा, प्रत्येक वस्तु के संचय-मोह का त्याग, अपने से भिन्न के अस्तित्व एवं अधिकारों की स्वीकृति, हर प्रकार के त्याग और बलिदान की तैयारी तथा दूसरों की समस्त लूटी हुई वस्तुओं से मुक्ति प्राप्त करने का विचार और इस तरह एक नये युग, एक नये समाज के निर्माण का संकल्प जिसके मूल में "जिओ और जीने दो" का उदार सिद्धान्त प्रतिष्ठित हो-आदि बिन्दुओं के मधुर, कोमल और आत्मीयतापूर्ण उपदेश का मार्ग निश्चित किया तथा मानव-अधिकारों की पुनर्घाप्ति एवं स्थापना का अपना अभियान स्वयं वीतराग होकर, निर्ग्रन्थ होकर प्रारम्भ किया।
मानव-अधिकारों की स्थापना के अपने इस अभियान में उन्हें स्वयं अनेक प्रकार के कष्ट, यातनायें और पीड़ायें सहनी पड़ी, अवर्णनीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ा किन्तु वे कभी भी न तो ऋद्ध हये, न क्षुब्ध हुये और न ही विचलित; परिणामत: उनके अभियान को विश्व-व्यापी विजय श्री प्राप्त हुई तथा बड़े-बड़े शोषक, उत्पीड़क और वैभव-विजेता उनके कमल-कोमल तथा मोक्ष-दायक चरणों में दंडवत् नत हो गये साथ ही साथ भारतवर्ष का सामान्य मानव भी उनकी शरण में जाकर पूर्णतः आश्वस्त एवं कष्ट-मुक्त हो गया।
- इस तरह हम देखते हैं कि श्रमण-संस्कृति ने मानव-अधिकारों की पुनर्स्थापना करके मानव की जो सेवा की है, उसके जीवन में जो युगान्तर स्थापित किया है, उसका जो कायाकल्प और कल्याण किया है तथा उसे अपरिग्रह, अहिंसा और अनेकान्त आदि के नैसर्गिक एवं देदीप्यमान रत्न प्रदान करके उसका जो उपकार किया है वह सम्पूर्ण वसुन्धरा में एक बेजोड़ बात है।
अस्तु, यदि हम सब हृदय से यह चाहते हैं कि सम्पूर्ण मानव-समाज सांगोपांग सुखी रहे तथा उसके प्रिय अधिकार अपनी अखंडित दशा में उसी के पास रहें तो हमें श्रमण-संस्कृति को बिना किसी हिचक के, बिना किसी विलम्ब के, शुद्ध श्रद्धाभाव के साथ अंगीकार कर उसे व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुंचाना चाहिये क्योंकि मानव के लिये जो ममता श्रमण-संस्कृति के रोम-रोम में व्याप्त है वह शायद मां को छोड़कर और कहीं भी प्राप्त नहीं होगी।
आत्मशुद्धि को कसौटी: तपस्या शास्त्र में शुद्ध आत्म-स्वरूप को पढ़कर कोई अपने आपको शुद्ध परमात्मा भ्रम से मान बैठे तो जन्म-मरण व्याधि से छूट नहीं सकता, इसके लिए तो उसे तपस्या का श्रम करना पड़ेगा। सोने की शुद्धि केवल कहने या समझ लेने से नहीं हुआ करती उसके लिए तो अग्नि पर तपाने का कठिन परिश्रम भी करना पड़ता है।
--मुनि श्री विद्यानंद, दिगम्बर जैन साहित्य में विकार, दिल्ली, १६६४, पृ० ८ से उद्धृत
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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