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प्रिय और किसी को अप्रिय न बनाएं । शत्रु अथवा मित्र सभी प्राणियों पर समभाव की दृष्टि रखना ही अहिंसा है।
समभाव एवं आत्मतुल्यता की दृष्टि का विकास होने पर व्यक्ति अहिंसक अपने आप हो जाता है। इसका कारण यह है कि प्राणी मात्र जीवित रहने की कामना करने वाले हैं। सबको अपना जीवन प्रिय है । सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। जब सभी प्राणियों को दुःख अप्रिय है तो किसी भी प्राणी को दु:ख न पहुंचाना ही अहिंसा है । अहिंसा केवल निवृत्तिपरक साधना नहीं है, यह व्यक्ति को सही रूप में सामाजिक मानने का अमोघ मंत्र है।
अहिंसा के साथ व्यक्ति की मानसिकता का सम्बन्ध है । इस कारण महावीर ने कहा कि अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। एक कृषक अपनी क्रिया करते हुए यदि अनजाने में जीव हिंसा कर भी देता है तो भी हिंसा की भावना उसके साथ जुड़ती नहीं है । भले ही हम किसी का वध न करें, किन्तु किसी के वध करने के विचार के जन्मते ही उसका सम्बन्ध मानसिकता से सम्पृक्त हो जाता है।
इसी कारण कहा गया है कि रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा एवं उसका प्रादुर्भाव हिंसा है।
हिंसा से पाशविकता का जन्म होता है, अहिंसा से मानवीयता एवं सामाजिकता का । दूसरों का अनिष्ट करने की नहीं, अपने कल्याण के साथ-साथ दूसरों का भी कल्याण करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को सामाजिक एवं मानवीय बनाया है। प्रकृति से वह आदमी है, नैतिकता बोध के संस्कारों ने उसमें मानवीय भावना का विकास कर उसके जीवन को सार्थकता प्रदान की है।
जब मनुष्य पशु जीवन जीता होगा तो रात दिन अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करता होगा। शक्तिमान निर्बल का वध कर देता होगा। विजयी होकर भी उसके जीवन में अनिश्चयात्मकता रहती होगी। जिस दिन दो व्यक्तियों ने आपस में मिलकर परस्पर सद्भाव एवं प्रेम से रहने की बात सीखी उसी दिन परिवार एवं समाज की संरचना की आधारशिला तैयार हुई। इस प्रकार अहिंसा व्यक्ति के चित्त को सामाजिक बनाती है।
अहिंसा से अनुप्राणित अर्थतंत्र : अपरिग्रह :
अहिंसा के साथ ही जुड़ी हुई भावनाएं हैं-अपरिग्रहवाद एवं अनेकांतवाद । परिग्रह से आसक्ति एवं ममता का जन्म होता है। अपरिग्रह वस्तुओं के प्रति महत्त्वहीनता का नाम है । जब व्यक्ति अहिंसक होता है, रागद्वाप रहित होता है तो स्वयमेव अपरिग्रहवादी हो जाता है। उसकी जीवन दृष्टि बदल जाती है। भौतिक-पदार्थों के प्रति आसक्ति समाप्त हो जाती है। अहिंसा की भावना से प्रेरित व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाता है, जिसमें किसी अन्य प्राणी के हितों को आघात न पहुंचे।
बहुत अधिक उत्पादन मात्र करने से ही हमारी सामाजिक समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं। हमें व्यक्ति के चित्त को अन्दर से बदलना होगा। उसकी कामनाओं, इच्छाओं को सीमित करना होगा तभी हमारी बहुत सारी सामाजिक समस्याओं को सुलझाया जा सकेगा।
ऐसा नहीं हो सकता कि कोई सामाजिक प्राणी सम्पूर्ण पदार्थों को छोड़ दे। किन्तु हम अपने जीवन को इस प्रकार से ढाल सकते हैं कि पदार्थ हमारे पास रहें किन्तु उनके प्रति हमारी आसक्ति न हो, हमारा ममत्व न हो।
समाज में इच्छाओं को संयमित करने की भावना का विकास आवश्यक है। इसके बिना मनुष्य को शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। 'पर कल्याण' की चेतना व्यक्ति की इच्छाओं को लगाम लगाती है तथा उसमें त्याग करने की प्रवृत्ति एवं अपरिग्रही भावना का विकास करती है।
परिग्रह की वृत्ति मनुष्य को अनुदार बनाती है उसकी मानवीयता को नष्ट करती है । उसकी लालसा बढ़ती जाती है । धन लिप्सा एवं अर्थ-लोलुपता ही उसका जीवन-लक्ष्य हो जाता है। उसकी जिन्दगी पाशविक शोषणता के रास्ते पर बढ़ना आरम्भ कर देती है। इसके दुष्परिणामों को भगवान महावीर ने पहचाना था। इसी कारण उन्होंने कहा कि जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन का सेवन करता है और अत्ययिक मूर्छा करता है । परिग्रह को घटाने से ही हिंसा, असत्य, अस्तेय एवं कुशील इन चारों पर रोक लगती है ।
परिग्रह के परिमाण के लिए 'संयम' की साधना आवश्यक है। 'संयम' पारलौकिक आनन्द के लिए ही नहीं, इस लोक के जीवन को सुखी बनाने के लिए भी आवश्यक है। आधुनिक युग में पाश्चात्य जगत् ने स्वच्छंद यौनाचार एवं निर्बाध इच्छा तृप्ति की प्रवृत्ति के कारण तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धान्त के नाम पर जो संयमहीन आचरण किया उसका परिणाम क्या हुआ? जीवन की लक्ष्यहीन, सिद्धान्तहीन, मूल्य विहीन स्थिति एवं निर्बाध भोगों में निरत समाज की स्थिति क्या है ? उनके पास पैसा है, धन दौलत है, साधन हैं किन्तु फिर भी जीवन में संत्रास, अविश्वास, अतृप्ति, वितृष्णा एवं कुंठायें हैं। हिप्पी सम्प्रदाय क्या इसी प्रकार की सामाजिक स्थितियों का परिणाम नहीं हैं ?
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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