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जैन दर्शन : आधुनिक सन्दर्भ
डॉ. हरेन्द्र प्रसाद वर्मा
आधुनिक युग निर्विवाद रूप से विज्ञान का युग है । अब धर्म और दर्शन का स्थान विज्ञान ने ले लिया है और वही ज्ञान और व्यवहार के क्षेत्र में अग्रगण्य और दिग्दर्शक बन गया है। वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति ने मानव-सभ्यता एवं संस्कृति को नयी दिशा दी है-उसे एक नया विश्व-दर्शन (Weltanschuung)दिया है । आधुनिक युग में वही दर्शन और धर्म उपयोगी हो सकता है जो विज्ञान सम्मत हो-विज्ञान की मान्यताओं के अनुकूल और विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने में सक्षम हो। जैन-दर्शन या कोई भी धर्म-दर्शन तभी प्रभावशाली हो सकता है जब कि उसकी अभिवृत्ति वैज्ञानिक हो और उसे आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त हो । अतएव आधुनिक सन्दर्भ में जैन-दर्शन की उपयोगिता पर विचार करते समय दो प्रश्न स्वभावत: हमारे समक्ष उठते हैं—(१) क्या जैन-दर्शन आधुनिक विज्ञान की मान्यताओं के अनुकूल है या उसे विज्ञान का समर्थन प्राप्त है ? (२) आधुनिक विज्ञान की जो बुराइयां हैं उनसे क्या यह धर्मदर्शन मनुष्य को त्राण दिला सकता है ? उसे चिन्ता और दुःख से मुक्त कर सकता है ?
जैन-दर्शन की यह विशेषता मानी जा सकती है कि यह दर्शन अत्यन्त विशाल, सर्वग्राही एवं उदार (Catholic) दर्शन है, जो विभिन्न मान्यताओं के बीच समन्वय करने एवं सबों को उचित स्थान देने को तत्पर है तथा इसका दृष्टिकोण बहुत अंशों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति (Spirit) से मेल खाता है। साथ ही साथ, यह बुराइयों को दूर कर विनाश के कगार पर खड़ी मानवता को सुख, शांति एवं मुक्ति का सन्देश भी देता है । यह धर्म-दर्शन इतना पूर्ण और समृद्ध है कि एक ओर विज्ञान के अनुकूल है और दूसरी ओर विज्ञान के अशुभ प्रतिफलों से मुक्त भी है । इसमें विज्ञान की सभी खूबियां वर्तमान हैं साथ ही यह उनकी खामियों से भी मुक्त है, बल्कि यह उसकी पूरक प्रक्रिया भी हो सकता है और विज्ञान को मानवतावादी और कल्याणकारी दृष्टिकोण भी दे सकता है। जैन-दर्शन की विशेषताएं निम्नलिखित दो मन्तव्यों से स्पष्ट है
एकनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण
अन्तेन जयति जैनी नोतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी।' (जिस प्रकार ग्वालिन पहले अपने एक हाथ से मथनी की रस्सी के एक छोर को अपनी ओर खींचती है, फिर दूसरे हाथ की रस्सी के छोर को ढीला छोड़ देती है किन्तु उसे हाथ से सर्वथा छोड़ नहीं देती; फिर शिथिल छोड़े गये छोर को पुनः अपनी ओर खींचती है और इसी प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया से मथकर मक्खन निकाल लेती है, उसी प्रकार जैनी विचार-मंथन में विभिन्न दृष्टिकोणों को यथा प्रसंग कभी गौण कभी मुख्य स्थान देता हुआ समन्वय रूप नवनीत एवं यथार्थ सत्य उपलब्ध कर लेता है—यह जैनियों की अनेकान्तवादी दृष्टि है।)
स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किंचिद् जैन धर्मः स उच्यते ॥"
(जिसमें स्याद् का सिद्धान्त है और किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है; किसी को पीड़ा न हो-ऐसा सिद्धान्त जिसमें है, उसे जैन
१. श्री मधुकर मुनि द्वारा 'अनेकान्त दर्शन', मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, व्यावर, राजस्थान, १९७४, पृ० १२ पर उद्धृत । २. श्री मधुकर मुनि, जैन धर्म : एक परिचय, १६७४, पृ० ३२ पर उद्धृत ।
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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