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विज्ञान केवल प्रतीति तक ही सीमित है। इसके अनुसार हम केवल छाया ही देख पाते हैं, द्रव्य नहीं। सर एडिंगटन ने लिखा है :
"The frank realization that physical science is concerned with thc world of shadows is one of the most significant advances. In the world of physics we watch a shadow-performence of the drama of familiar life. The shadow of my elbow rests on the shadow-table as the shadow-ink flows over the shadow-paper.'"
जैन दर्शन का दृष्टिकोण सर्वग्राही है ; यह द्रव्य और प्रतीति दोनों पहलुओं का समन्वय करता है। इसके अनुसार द्रव्य में गुण और पर्याय दोनों हैं-गुणपर्यायवद् द्रव्यं । गुण की दृष्टि से द्रव्य शाश्वत सत्ता है और पर्याय की दृष्टि से वह प्रतीति है । अतएव जैन-दर्शन सत्ता (Noumenon) और प्रतीति (Phenomena) दोनों को मानता है । एक दृष्टि से विज्ञान भी इन दो दृष्टियों को अपनाता है। एक दृष्टि से वह मात्रा और शक्ति को नित्य मानता है और दूसरी दृष्टि से जगत् को उनका प्रतिभाष मानता है। लढे जियर (Lavoisier) ने 'शक्तिनित्यता नियम' की व्याख्या करते हुए लिखा है--"Nothing can be creatad and in every process there is just as much substanee (quantity of matter) present before and after the process has taken place. There is only a change or modification of matter.""जैन दर्शन भी मानता है कि जगत् के तत्त्व शाश्वत हैं और जगत् केवल उनके रूपान्तरण से उद्भूत होता है। अतएव द्रव्य की दृष्टि से यह अपरिवर्तनशील और सनातन है तथा लोक अकृत्रिम हैप्रकृत स्वभाव से ही उद्गम, विकास और विनाश होता है। 'मूलाचार' में कहा गया है—'यह लोक अकृत्रिम है-प्रकृत स्वभाव से उद्भूत है। जीव-अजीव द्रव्यों से भरा है और ताल वृक्ष के समान खड़ा है।"
लोओ अकट्टिमो खलु अणाई णिहणो सहाव णिप्पणो। जीवाजीवोहिं भरोणिच्चो ताल सक्ख सठाणो॥""
अतएव जगत सम्बन्धी जैन-दर्शन की धारणा वैज्ञानिक धारण के समकक्ष है।
नास्तिकवादी धर्म दर्शन (Atheistic Philosophy) : . विज्ञान के प्रभाव के कारण आधुनिक युग की प्रवृत्ति अनीश्वरवादी है। विज्ञान मानता है कि जगत् का स्रष्टा एवं संचालक कोई ईश्वर नहीं है। वह प्राकृतिक नियमों से विश्व की व्याख्या करता है । यदि जगत् का कोई सृष्टिकर्ता माना जाय जो असृजित है, तो जगत् को ही असृजित और शाश्वत मानने में क्या हानि है ? ५ जैन-दर्शन की भी यही मान्यता है।
फ्रॉयड आदि मनोविश्लेषकों ने माना है कि ईश्वर केवल हमारी अतृप्त इच्छा और भय की उपज है। ईश्वर की धारणा शैशवकालीन पिता के अनुभव से आती है। ईश्वर केवल पिता का ही प्रक्षेपेण है-'पिता की ही प्रतिमा है।' (God is nothing but father's image) | मार्क्स ने ईश्वर को आर्थिक-प्रताडना की उपज माना है और यह मत प्रतिपादित किया है कि आर्थिक-संकट, अभाव और विपन्नता में जीने वाला सामर्थ्यहीन मनुष्य एक अतिप्राकृतिक सहायक की कल्पना कर लेता है। अतएब "धर्म कठिन जीवन जीने वालों के लिए चैन की एक सांस है, हृदयहीन संसार का हृदय है, अनात्मिक परिस्थितियों की आत्मा है । जनता के लिए अफीम है (Religion is opium of the people) | इसके नशे में वह अपना दुःख-दर्द भूलने का प्रयास करता है। शासक की प्रतिमा में मनुष्य विश्व के एक शासक की प्रतिमा गढ़ लेता है। जैन दर्शन भी निरीश्वरवादी है। इसके अनुसार जगत् का सृष्टिकर्ता कोई ईश्वर नहीं है । ईश्वर की धारणा मनुष्य की सामर्थ्यहीनता
१. The Nature of the Physical World, quoted in Mahrishis Gospel, Book-I and II, Shri Ramanasharm,
Tiruvarrnamalai २. तत्त्वार्थसूत्र, ५३८ ३. श्री दुलीचन्द्र जैन द्वारा "जैन दर्शन में पुद्गल-द्रव्य और परमाणु-सिद्धान्त” चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, अ. भा० दि० जैन महिला परिषद्, १९५४, पृ. २६३
पर उदृत ४. मूलाचार, ८/२८ ५. देखिए, अर्दैन्ड रसेल का लेख
'The Existence of God', (Ed.) John Hick, Macmillan Co, New York, 1964, पृ० ४५ ६. देखिए, Freud, Future of an Illusion', 1953 तथा 'Civilization and it's Discontents', 1930 ७. माक्स, इन्ट्रोडक्शन टू ए क्रिटिक ऑफ ही गेल्स फिलॉसफी ऑफ लॉ। क्रिस्टोफर कॉडबेल द्वारा फर्दर स्टडीज इन डाइंग कल्चर, मंथली रिव्यू प्रेस, लन्दन १९७१,
पृ०७५ पर उद्धृत
आचार्यरत्न श्री देशमूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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