________________
आपरेन (I. A. Oparin)ने भी १९२२ में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि धरती पर प्रयम जीव का विकास रासायनिक तत्त्वों के संयोग से हुआ। अभी हाल ही में डा० हरगोविन्द खुराना ने रासायनिक तत्त्वों के सम्मिश्रण से सरलतम जीवाणु (D. N. A.) उत्पन्न करने का प्रयास किया है।
जैन-दर्शन यद्यपि भौतिकवादी नहीं है, इसका जोर अध्यात्मवाद या आत्मावाद पर ही है, फिर भी यह भौतिकवाद को उचित स्थान और महत्त्व देता है । यह जीव और अजीव या आत्मा और पुद्गल (Matter) दोनों की सत्ता स्वीकार करता है। पुद्गल की इसकी धारणा आधुनिक विज्ञान के पदार्थ की धारणा से मिलती-जुलती है। पुद्गल वह है, जिसमें संगठन और विघटन होता है-जो टूटता और जुड़ता है (पूरयन्ति गलन्ति च ।)।' आधुनिक विज्ञान भी मानता है कि पदार्थ वह है जिसमें संगठन (Fusion)और विघटन (Fission) होता है।
पुद्गल इन्द्रिय का विषय है और रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त है। जैन-दर्शन भौतिकवादियों से इस सीमा तक सहमत है कि शरीर, वाक्, मन, प्राण आदि भौतिक हैं।
शरीर वाङ्गमनः प्राणापानः पुद्गलानाम् । दूसरी ओर जीव या आत्मा वह है जिसमें चेतना है—चेतना लक्षणो जीवः । विज्ञान भी जीव और अजीव दो सत्ताओं को स्वीकार करता है। एक (जीव) जीव-विज्ञान का विषय है और दूसरा (अजीव) पदार्थ-विज्ञान का । जैन-दर्शन की जीव सम्बन्धी धारणा कुछ अंशों में जीव-विज्ञान की धारणा से मिलती है। क्योंकि यह जीव को जीवनी-शक्ति (Vital force) मानता है। इस कारण यह पहाड़, वनस्पति, खनिज-द्रव्य आदि को भी सजीव मानता है। अकारण नहीं है कि आधुनिक वनस्पति शास्त्री पेड़-पौधों को सजीव मानने लगे हैं । इस संदर्भ में जगदीश चन्द्र बसु का प्रयोग प्रसिद्ध एवं सर्वविदित है।
(३) विश्लेषणवादी पद्धति (Analytic Method)-विज्ञान की पद्धति विश्लेषण या विभाजन की पद्धति है। इसमें जटिल वस्तुओं को विभाजित कर सूक्ष्मातिसूक्ष्म तत्त्वों में पर्यवसित कर के मूल तत्त्वों का पता लगाने का प्रयास किया जाता है । १९वीं सदी का विज्ञान पदार्थ का खंड-खंड करके परमाणु तक पहुंचा था। २०वीं सदी के विज्ञान ने परमाणु का भी विघटन कर डाला है और पाया है कि परमाणु भी यौगिक है और वह इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन, पॉजीट्रोन आदि वैद्य तिक शक्तियों का संगठन है; अतएव अब विज्ञान शक्तिवाद की ओर झुक रहा है।
जैन-दर्शन की पद्धति विश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक दोनों है। विश्लेषण की प्रक्रिया से यह भी अणु तक पहुंचा हैभेदादणु । अणु की इसकी धारणा पाश्चात्य विज्ञान के अणु के समकक्ष नहीं है, क्योंकि अणु अविभाज्य तत्त्व है जबकि पदार्थ विज्ञान का अणु विभाज्य सिद्ध हो चुका है। फिर भी, पदार्थ का जो चरम अविभाज्य तत्त्व है, उसे ही जैन-दर्शन अणु मानता है। जैन परमाणुवाद डाल्टन के परमाणुवाद के प्रायः समकक्ष है। परमाणुवाद के संबंध में जैन-दर्शन की जो महत्त्वपूर्ण देन है, वह है—(१)परमाणुओं के संगठन का नियम । जैन-दर्शन में परमाणुओं के संगठित होने के तीन नियम बताए गए हैं--(क) भेद, (ख) संघात, और (ग) भेद-संघात; जो पदार्थ विज्ञान
2. Oparin, I. A., Life: Its Nature, Origin and Development, Acadamic Pres, New York, 1962 २. Dr. H.G. Khorana, Pure and Applied Chemistry, 1968 ३. सर्वदर्शनसंग्रह, ३ ४. रूपिण: पुद्गला: । तत्त्वार्थसून ५/५
रूपरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गला: । तत्त्वार्थसूत्र ५/२३ रूपिण: पुद्गलाः रूपं मूत्तिः रूपादि संस्थानपरिणामः ।
रूपमेषामस्तीति रूपिणः मूत्तिमन्तः । सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ५ ५. तत्त्वार्थ सूत्र, ५/१६ ६. उपयोगोलक्षणम्, तत्त्वार्थसूत्र, २/८ ७. देखिए Sinclair Stevenson, The Hert of Jainism, Oxford University Press, London, 1915, पृ०६५ ८. तत्त्वार्यसूत्र, ५/२७ है. कुन्दकुन्दाचार्य, सन्वेसि खधाणां जो अन्तो ते वियाण परमाणू ।
सो सस्सदो सस्सदो असो, एक्को अविभाजी मुत्तिभवो ।। पंचास्तिकाय, गाथा-७७
(अर्थात् स्कन्धों का जो अन्तिम भेद है, वह परमाणु है, वह अविनाशी शब्द रहित, विभाग रहित और पूत्तिक है।) १०. उमास्वामी, भेदसंघातेभ्य: उत्पद्यन्ते । तस्वार्थसूत्र, ५/२६
५२
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.