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भगवान् महावीर एवं बुद्ध के काल तक स्थिति में पर्याप्त अन्तर आ चुका था वैदिक चिन्तन में भी आग्रहपूर्ण दृष्टि से तत्त्वचिन्तन पर विशेष बल दिया जाने लगा जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप अनेक अवैदिक मतमतान्तर दार्शनिक जगत् में प्रसिद्ध हो चुके थे । भगवान् महावीर और बुद्ध ने इन परिस्थितियों में विभज्यवाद का आश्रय लिया। दोनों ही सिद्धान्ततः सापेक्षवाद की अवधारणा से अनुप्रेरित हैं। बुद्ध ने जीव जगत् ईश्वर के नित्य एवं अनित्यत्व की प्रासंगिकता को हेव मानते हुए इन्हें 'अव्याकृत' प्रश्न घोषित कर दिया जिसका अर्थ या दो विरोधी वादों के समकक्ष अस्वीकारात्मक तृतीय मार्ग का अवलम्बन लेना। जबकि भगवान् महावीर ने ऐसे प्रश्नों को भी विभज्यवाद द्वारा स्वीकारात्मक शैली में सुलझाने का प्रयास किया है। इसी विभज्यवाद को कालान्तर में अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। महावीर कालीन विभज्यवाद का जो स्वरूप भगवती सूत्र में उपलब्ध होता है, उसके अनुसार लोक की नित्यानित्यता, जीव की सान्तानन्तता, शरीर का भेदाभेद, परमाणु की नित्यानित्यता जैसे गम्भीर एवं रहस्यपूर्ण समस्याओं को इस वाद द्वारा सुलझाने की चेष्टा की गई है ।' आधुनिक सन्दर्भ में महावीरकालीन विभज्यवाद का उचित मूल्यांकन यदि किया जाए तो यह कहना होगा कि विभज्यवाद युग चिन्तन के तनाव को शान्त करने हेतु उठाया गया एक ऐसा कदम था जिसमें उच्छेदवादियों एवं शाश्वतवादियों का पारस्परिक बौद्धिक विवाद समाप्त हो जाता है। भगवान् बुद्ध ने भी विवादग्रस्त प्रश्नों को अव्याकृत कह कर जिस मध्यम मार्ग का सहारा लिया उसका उद्देश्य भी तनावपूर्ण वैचारिक स्थितियों में समझौता करना ही रहा था। इस प्रकार आधुनिक व्यवहारवादी दृष्टिकोणानुसार भी भगवान् महावीर का विभज्यवाद अपनी सैद्धान्तिक प्रासंगिकता को लिए हुए है। पाश्चात्य संगतिवादी आलोचक अनेकान्तवाद के प्रसंग में जो आपत्तियां रखता है महावीरकालीन विभज्यवाद उनसे मुक्त है। इसी प्रकार व्यवहारवादी के अपेक्षा से वस्तुविश्लेषण का जो स्वरूप स्वीकार किया जाता है विभज्यवाद उसके भी अनुकूल है।
आधुनिक काल में भी तर्क को उपयोगितावाद के आधार पर स्वीकार किये जाने की और विशेष बल दिया जा रहा है। आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के शब्दों में "तर्क अपने आप में शून्य है। श्रद्धा का उत्कर्ष ही तर्क है । जिस वस्तु में श्रद्धा रम जाती है, उसका समर्थन सूत्र ही तर्क है। आग कसौटी है सोना नहीं। तर्क है अनुभूति नहीं अनुभूतिहीन तर्क का उतना ही मूल्य है जितना सोने के बिना कसौटी का ।"" आचार्य श्री यह मानते हैं कि शुष्क तर्क हृदय हीन होता है एवं श्रद्धा सम्मत तर्क ही समाज में अहिंसक समाज की आधारजिला रखने में समर्थ है जबकि कूटनीति के छलावे से उत्पन्न वर्क हिंसा का ही प्रचार करता है। इस प्रकार आचार्य देशभूषण महाराज ने भगवान् महावीर की मूलचेतना को पकड़ते हुए आधुनिक सन्दर्भ में इसकी सार्थकता का प्रतिपादन किया है।
६. आधुनिक युग परिवेश एवं वैचारिक सन्तुलन
आचार्य श्री देशभूषण आज भी धार्मिक सद्भावना एवं राष्ट्रीय एकता के प्रचार व प्रसार द्वारा जैन धर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों को राष्ट्र की मुख्य धारा के साथ जोड़ने में विश्वास रखते हैं। दिल्ली के प्रसिद्ध समाचार पत्र हिन्दुस्तान दैनिक ने आचार्य श्री के जन्म जयन्ती १६ दिसम्बर, १९८२ के उपलक्ष्य पर यह उद्गार प्रकट किया है कि "हिन्दू समाज के धर्म प्राण नेता स्व० श्री जुगलकिशोर बिरला के सान्निध्य में आचार्य श्री देशभूषण जी ने सम्प्रदाय विशेष के पूर्वाग्रहों से ग्रसित व्यामोहों को त्यागकर नई दिल्ली में १९५३ में श्री लक्ष्मीनारायण जी मन्दिर गीता भवन में धर्मोपदेश दिया था और उस दिन प्रतीत हुआ कि नारायण श्री कृष्ण के गीता पाठ का आचार्य श्री द्वारा किया गया भाष्य स्वतन्त्र भारत की चेतना के लिए सर्वधर्म सद्भाव, अनेकान्तवाद एवं निर्भयता के मंगल उपदेश से परिपूर्ण है । और वह दिन वैचारिक कट्टरता को समाप्त करने में सदैव प्रेरणा देता रहेगा । "४ राष्ट्रीय एकता एवं विश्व मानवता के प्रचार में आचार्य श्री की भूमिका का उल्लेख करते हुए पत्र लिखता है कि "आचार्य श्री देशभूषण ने विश्व मानवता का प्रचार करते हुए 'जय जवान जय किसान' के उद्घोषक प्रधानमंत्री स्व० श्री लाल बहादुर शास्त्री को पूर्ण सहयोग दिया और पाक युद्ध के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षाकोप के लिए उनके सहयोग से एक लाख रुपये से अधिक की राशि व ३० किलो चांदी एवं स्वर्णाभिलंकार एकत्रित किए गए और कई वर्ष पूर्व एक ज्वलंत समस्या के समाधान में माननीय प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी से संसद भवन में उनकी भेंट सार्थक सिद्ध हुई है।"" इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी के अनुसार जैन धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों की प्रासंगिकता राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में भी निरूपित की जा सकती है ।
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१. दलसुख मालवणिया, आगम युग का जैन दर्शन, पृ० ६२-६७
२. आचार्य श्री देशभूषण, उपदेशसारसंग्रह, प्रथम भाग, पृ० ३५५-५६ ३. वही, पृ० ३५६
४. हिन्दुस्तान (हिन्दी दैनिक), १६ दिसम्बर, १९८२, पृ० ३ ५. वही, पृ० ३
जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ
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