________________
कठिन काम है । अपराध की गुरुता लघुता के अनुरूप दण्ड और प्रायश्चित दिये जाते हैं । दण्ड और प्रायश्चित का व्यक्ति पर कैसा प्रभाव पड़ेगा उसका परिणाम आदि का अभ्यास करने के बाद दण्ड और प्रायश्चित के मापदण्ड का निर्धारण करना आवश्यक है । प्रायश्चित देते समय गुरु या तो आचार्य ग्यारह बाबनों का ख्याल रखते हैं : (१) द्रव्य (२) क्षेत्र (३) काल (४) भाव (५) क्रिया (६) परिणाम (७) उत्साह (८) संचवण (१) पर्याय (१०) आगम और (११) पुरुषार्थ प्रायश्चित द्वारा शुद्धिकरण की पद्धति का अभ्यास अपराधशास्त्रियों के लिए समाज के विविध स्तरों पर - विद्यार्थी, कामदार, संगठनों के सभ्य, आदि-आदि- दण्ड के विकल्प में प्रायश्चित के प्रयोगों को अपनाने की ओर निर्देश कर सकता है। इस पद्धति से सही अर्थ में अपराधनिवारण हो सकता है। और इसका गहरा आध्यात्मिक मूल्य भी है।
निबन्ध के नवें प्रकरण में निबन्ध की समालोचना समाविष्ट है। दण्डनीति और जैन दण्डनीति के भेद चर्चित हैं। धार्मिक फिलासॉफी और समाज विज्ञान की एकता व भिन्नता को टटोलकर समन्वय कैसे किया जा सकता है, यह बताया है। धार्मिक शिक्षण, शिक्षा, संयम, प्रामाणिकता, नैतिकता आदि का राष्ट्रीय चारित्र्य निर्माण में योगदान समझाया है। संवर का पाठ ही अपराध से व्यक्ति और समाज को बचा सकेगा। भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने के कारण सभी धर्मों के आचार्यों पर विशिष्ट जबाबदारी आ पड़ी है कि अपने धर्मसिद्धान्त के आधार पर अनुयायियों का चरित्र उज्ज्वल और विकसित हो, न कि राष्ट्रीय नीतिमत्ता का स्तर ऊंचा उठे ।
जैन संस्कृति का सन्देश
जैन संस्कृति की संसार को जो सबसे बड़ी देन हैं, वह अहिंसा है । अहिंसा का यह महान् विचार, जो आज विश्व की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन समझा जाने लगा है और जिसकी अमोघ शक्ति के सम्मुख संसार की समस्त संहारक शक्तियां कुण्ठित होती दिखाई देने लगी हैं. एक दिन जैन संस्कृति के महान् उन्नायकों द्वारा ही हिसा काण्ड में लगे हुए संसार के सामने रखा गया था। जैन संस्कृति के महान् संस्कारक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने तो राष्ट्रों में परस्पर होने वाले युद्धों का हल भी अहिंसा के द्वारा ही बतलाया है। उनका आदर्श है कि प्रचार के द्वारा विश्व भर में प्रत्येक मनुष्य के हृदय में यह जंचा दो कि वह स्व में ही सन्तुष्ट रहे, पर की ओर आकृष्ट होने का कभी भी प्रयत्न न करे। पर की ओर आकृष्ट होने का अर्थ है कि दूसरों के सुख साधनों को देखकर लालायित हो जाना और उन्हें छीनने का दुःसाहस करना । जब तक नदी अपने पाट में प्रवाहित होती रहती है तब तक उससे संसार को लाभ ही लाभ है, हानि कुछ भी नहीं । ज्योंहि वह अपनी सीमा से हटकर आस-पास प्रदेश पर अधिकार जमाती है, बाढ़ का रूप धारण करती है तो संसार में हाहाकार मच जाता है, प्रलय का दृश्य आ खड़ा होता है। यही दशा मनुष्यों की है। जब तक सबके सब मनुष्य अपने स्व में ही प्रवाहित रहते हैं तब तक कुछ अशान्ति नहीं, लड़ाई-झगड़ा नहीं, अशान्ति और संघर्ष का वातावरण नहीं पैदा होता है। जहां मनुष्य स्व से बाहर फैलना शुरू करता है, दूसरों के अधिकारों को कुचलता है, दूसरों के जीवनोपयोगी साधनों पर कब्जा जमाने लगता है, वहां संघर्ष, ईर्ष्या, द्वेष और कलह पनपने लगते हैं ।
- आचार्य रत्न, श्री देशभूषण उपदेशसारसंग्रह, भाग-६, दिल्ली, वीर नि० सं० २४६०, पृ० १६५-६६ से उद्धृत
१. निबन्ध की भूमिका और समालोचना के लिए द्रष्टव्य- 'तुलसी प्रज्ञा', जैन विद्या-परिषद् परिशिष्टांक, खण्ड ६, अंक १२, पृ०२८, मार्च, १६८१
२६
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org