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जैन शास्त्रीय परम्परा एवं आधुनिक वैज्ञानिक मान्यता के सन्दर्भ में श्रोत्रेन्द्रिय की प्राप्यकारिता: एक समीक्षा
जैन शास्त्रों में भौतिक जीवन से सम्बन्धित अनेक प्रकरण पाये जाते हैं । इन्द्रियों द्वारा अपने विषयों का ज्ञान किस प्रकार किया जाता है—यह प्रकरण भी इनमें से एक है एवं महत्त्वपूर्ण है। जैन मान्यता के अनुसार, चक्षु और मन को छोड़कर सभी इन्द्रियां पदार्थ या वस्तु से संनिकृष्ट, स्पृष्ट या संपर्कत होने के बाद ही विषय ज्ञान कराती हैं। पूज्यपाद', अकलंक, प्रभाचंद्र' तथा अन्य आचार्यों ने अपने ग्रंथों में इस विषय पर तार्किक विचार किया है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि आंख की रचना और उसकी कार्य पद्धति के विषय में प्राप्त वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर चक्षु के अप्राप्यकारित्व की परिभाषा में किंचित् संशोधन की आवश्यकता है । इस लेख में श्रोत्र या कर्णेन्द्रिय की प्राप्यकारिता विषयक मत की समीक्षा का प्रयत्न किया जा रहा है। इस विषय में न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक, स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका, सन्मतितर्क टीका एवं वीरसेन की धवला टीका में भी प्रकाश डाला गया है। भगवतीसूत्र के शातक ५ उद्देशक ४ में भी इसका उल्लेख है ।
श्रोत्र की प्राप्यकारिता संबंधी तर्क :
श्रोत्र के विषय में बौद्धों को छोड़कर अन्य सभी दर्शन प्राप्यकारिता का सिद्धान्त मानते हैं। इसके अनुसार, श्रोत्र अन्य इन्द्रियों के समान ही शब्द या ध्वनि से संपर्कत होने के बाद ही शब्दज्ञान कराने में सहायक होता है। जैन ध्वनि को मूर्त एवं पुद्गल मानते हैं। यह ध्वनि पदार्थों के संघट्टन से उत्पन्न कंपनों से उत्पन्न होती है और अपनी समुचित गति से चलकर कानों के परदे से टकराती है। यह संपर्क ही ध्वनिज्ञान में सहायक होता है। इस टकराहट की तीव्रता, मंदता में ध्वनियों की निकटता तथा दूरता का बोध होता है। बौद्धों के अनुसार, कान भी आंख के समान दूर की ध्वनियों को सुनता है, अतः इसे बिना संपर्क के विषय ग्रहण करना चाहिए। कर्ण-पटल पर शब्द के तीव्र और मंद अभिघात उसकी दूर-समीपता का आभास कराते हैं।
जैन अनेक उदाहरणों से बौद्धों के मत का खंडन करते हैं। उनका कहना है कि कान के भीतर घुसे हुए समीपवर्ती मच्छर की आवाज को वह सुनता है, अत: वह प्राप्यकारी है । यह संभव नहीं कि कोई भी इन्द्रिय दूरवर्ती और समीपवर्ती दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान करा सके । दूरता-समीपता का ज्ञान तो घ्राणेन्द्रिय से भी होता है, और वह प्राप्यकारी है । अतः इस आधार पर श्रोत्र की प्राप्यकारिता सिद्ध नहीं की जा सकती। राजवार्तिक के अनुसार, शब्द पुद्गलों में सूक्ष्मता के साथ पर्याप्त वेग होता है, वे चारों ओर से कानों में प्रवेश कर सकते हैं और उनके आवागमन में विशेष रुकावट भी नहीं होती है। ये तथ्य श्रोत की प्राप्यकारिता की क्रिया-पद्धति का समर्थन करते हैं ।
श्री नन्दलाल जैन
श्रोत्र की प्राप्यकारिता के समर्थन में प्रभाचंद्र ने अनेक तर्क दिए हैं जिनमें शब्द की दूरवर्तिता का विश्लेषण किया गया है। शब्द क्या दूरवर्ती ही होता है ? अथवा वह दूरवर्ती कारणों से उत्पन्न होता है, दूर देश से आकर कान में ध्वनि उत्पन्न करता है या दूर देश में स्थित रहता है? यदि शब्द केवल दूरवर्ती ही होता है, मच्छरावि की निकटवर्ती ध्वनियों में शब्द-व्यवहार नहीं होता। दूरवर्ती कारणों से
१. पूज्यपाद आचार्य : सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ, १६६४
२. अकलंकदेव, तत्त्वार्थवात्तिक १, वही, १६४४
३. प्रभाचंद्राचार्य : (अ) प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, निर्णय सागर प्रेस, बंबई, १९४१
(ब) न्यायकुमुदचन्द्र, माणिकचंद्र ग्रन्थमाला, बंबई, १९३८
४. नंदलाल जैन, तुलसी प्रज्ञा (प्रेस में)
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आचार्य रत्न श्री देशमुषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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