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पूर्वजन्म की स्मृति वाले जातकों में सामान्यतया असामान्य व्यवहार पाया जाता है। ऐसे अधिकांश जातक वर्तमान जन्म के वातावरण और पैतिक गुण-धर्मों के विपरीत वृत्तियों का प्रदर्शन करते हैं । जैसे—पूर्वजन्म में धनसंपन्न किन्तु वर्तमान में गरीब होने पर भी जातक धनसंपन्न व्यक्तियों की तरह व्यवहार करता है। पूर्व जन्म में मांसाहारी वर्तमान जन्म में निरामिष परिवार में जन्म लेने पर भी मांसाहार की रुचि रखता है। धार्मिकता की पूर्वजन्म की प्रवृत्ति प्रायः वर्तमान जन्म में भी असाधारण रूप से प्रकट होती हुई दिखाई देती है। शौकीनता और रुचि की विलक्षणता भी असामान्य रूप से वर्तमान जीवन में देखी जाती है। इन सब असामान्य व्यवहारों का सामान्य एवं ज्ञात तत्त्वों के आधार पर व्याख्यात्मक विश्लेषण नहीं किया जा सकता । कभी-कभी भारत जैसे देश में जहां जातिवाद का प्रबल प्रभाव है, जातक द्वारा अपनी पूर्वजन्म की जाति के संस्कार एवं तदनुरूप व्यवहार व आचरण प्रस्तुत होता हुआ दिखाई देता है । जैसे-जसवीर नामक एक बालक जो वर्तमान में 'जाट' है, अपने को पूर्वजन्म में ब्राह्मण बताता है और ब्राह्मण की तरह खाने-पीने, शुद्धि आदि के लिए आग्रह करता है। यहां तक कि अपने जाट माता-पिता के हाथों बनाया हुआ खाना खाने से वह इंकार करने लगा।
कुछ जातकों में बचपन से ही कुछ ऐसे कला-कौशल, शैक्षिक ज्ञान एवं भाषा ज्ञान पाये जाते हैं, जो स्पष्टतया उसके पूर्वजन्म में अजित गुणों के साथ संबंधित होते हैं । बिशनचंद की घटना में तबला बजाने की निपुणता तथा उर्दू का ज्ञान इसी बात का द्योतक है । इसी प्रकार ब्राजील की एक अन्य घटना में पाउलो नामक बच्चा तीन चार वर्ष की आयु में सिलाई कला में असामान्य दक्षता रखता था, जिसका संबंध उसके पूर्वजन्म के व्यक्तित्व के साथ जोड़ा जा सकता है, जिसमें वह एमिलिया नामक लड़की के रूप में था तथा इस कला में दक्ष था।
इन सब बातों के अतिरिक्त धार्मिक श्रद्धा या विश्वास, भय, सेक्सुअल ज्ञान, वैर-विरोध आदि भावनाओं की असामान्य प्रबलता की विद्यमानता भी ऐसे जातकों में पाई जाती है, जिनका वर्तमान जीवन के किसी सामान्य घटनाप्रसंग, वातावरण या जानकारी से कोई संबंध नहीं मिलता। जैसे रविशंकर नामक बालक (जातक) अपने वर्तमान जन्म में अपने पूर्वजन्म के हत्यारों से भय भी रखता है और उनके प्रति क्रोध भी करता है।
आधुनिक मनोविज्ञान जिन सिद्धांतों के आधार पर मनुष्य की मानसिक वृत्तियों और भावनाओं की व्याख्या प्रस्तुत करता है, वह उक्त असामान्य मनोवैज्ञानिक तथ्यों का कोई समाधान नहीं देता। प्रत्युत इन असामान्य मनोवृत्तियों और विलक्षणताओं के लिए पूर्वजन्म के संस्कारों की परिकल्पना अपने आप पूर्ण और बुद्धिगम्य समाधान प्रस्तुत करती है।
यद्यपि सामान्य रूप से पूर्वजन्म और वर्तमान जन्म में लैंगिक समानता पाई जाती है, फिर भी कुछ घटनायें (लगभग १० प्रतिशत) ऐसी भी सामने आई हैं, जिनमें जातक पूर्वजन्म में स्त्री होता है और वर्तमान जन्म में पुरुष बन जाता है या पूर्वजन्म में पुरुष होता है और वर्तमान जन्म में स्त्री बन जाता है । जैसे सिलोन में घटित एक घटना में ज्ञानतिलका नामक एक लड़की अपने को पूर्वजन्म में तिलकरत्न नामक लड़के के रूप में बताती है। ब्राजील में घटित एक घटना में पाउलो नामक एक बच्चा अपने को एमिलिआ नामक लड़की का पुनर्जन्म बताता है। ऐसे लैंगिक परिवर्तनों में जातक के वर्तमान जीवन में अपने पूर्वजन्म की लैंगिक विलक्षणता भी पाई गई है, जो मनोवैज्ञानिकों के लिए अवश्य ही प्रश्नचिह्न है।
सबसे अधिक आश्चर्यजनक एवं अव्याख्येय बात ऐसी घटनाओं में पाई जाती है, वह है-वर्तमान जीवन में जातक के शरीर पर पाये जाने वाले विचित्र चिह्न या शारीरिक अपूर्णता जो जन्म से ही जातक के शरीर में पाई जाती है और जिनका संबंध उसके अपने पूर्वजन्म में घटित घटनाओं के साथ बताया जाता है । जैसे-रविशंकर नामक बालक के शरीर में गर्दन पर एक दो इंच लंबा और १/४ या १/८ इंच चौड़ा घाव का चिह्न डॉ० स्टीवनसन ने स्वयं सन् १९६४ में देखा था, जिस समय रविशंकर की आयु १३ वर्ष की थी। डा० स्टीवनसन को बताया गया कि यह घाव जन्म से ही रविशंकर के शरीर पर है तथा जन्म के समय वह इससे भी अधिक लंबा था । घाव वाली जगह पर चमड़ी का रंग आसपास की चमड़ी से और अधिक गहरा था तथा छुरी से किये हुए घाव की तरह स्पष्ट दिखाई देता था। रविशंकर के कथनानुसार पूर्वजन्म में उसकी शस्त्र द्वारा गर्दन काटकर हत्या की गई थी।
पूर्वजन्म में शरीर पर हुए चिह्न वर्तमान जन्म में शरीर पर उसी प्रकार और उसी स्थान पर पाये जायें-यह एक बहुत ही अद्भुत एवं विचित्र बात है । ऐसे चिह्नों की शरीर-शास्त्र संबंधी सामान्य वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर कोई व्याख्या संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में पूर्वजन्म के साथ ही उसका संबंध जुड़ता है। यह अवश्य शोध का विषय है कि किस प्रकार आत्मा अपने एक जन्म के शारीरिक चिह्नों को भी दूसरे जन्म में ले जाती है।
जैन दर्शन द्वारा प्रदत्त कर्म-सिद्धांत के आधार पर इस तथ्य की व्याख्या संभवतः इस प्रकार की जा सकती है
जैन दर्शन में शरीर संबंधी समस्त निर्माण का मूल कारण नाम-कर्म है। नाम-कर्म की प्रकृतियों में संघातननामकर्म, निर्माणनामकर्म तथा आनुपूर्वीनामकर्म के द्वारा उक्त तथ्य की व्याख्या हो सकती है । औदारिक आदि शरीरनामकर्म के उदय से औदारिक आदि वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण होता है, बन्धननामकर्म के उदय से गृहीत पुद्गल के साथ गृह्यमाण पुद्गल का संमीलन होता है, तथा संघातननामकर्म
जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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