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को स्पष्ट कर सकना उसके बस की बात नहीं । बुद्धि का कार्य है वस्तु को टुकड़े-टुकड़े करके समझाना।' न्यायदर्शन में तर्कशास्त्र की इन्हीं बुद्धिवादी सीमाओं की ओर इंगित करते हुए कहा गया है कि सन्देह अथवा संशय की निवृत्ति तर्क का उद्देश्य है-धेन निर्मातेऽयं न्यायः प्रवर्तते किं तर्हि संशयितेऽर्थे । तर्क के इसी बुद्धिवादी धरातल पर अनेकांतवाद के औचित्य को स्वीकार किया जाना चाहिए। जबकि जैन परम्परा में एवं उपनिषद् परम्परा में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि तत्त्वचिन्तन के सन्दर्भ में बुद्धिवादी तर्क प्रणाली प्रमेय-निरूपण में पूर्णतः सक्षम नहीं है । नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन' आदि मान्यताओं के सन्दर्भ में जहां तत्त्वदर्शन को एक दिव्य आत्मदर्शन की असहज संभावना प्रतिपादित किया गया है वहां दूसरी ओर 'केवल ज्ञान' की जैन अवधारणा भी यही घोषित करती है कि केवलज्ञानी ही ज्ञान के सभी द्रव्यों को अपनी सम्पूर्ण पर्यायों के साथ देख सकता है। परन्तु जब हम बुद्धिवादी तर्फ पद्धति की बात करते हैं तो हमें ज्ञान की 'अन्तदर्शन-पद्धति' तथा 'केवलज्ञान' की पद्धति को मिलाना नहीं चाहिए क्योंकि इन पद्धतियों की प्रवृत्ति तब होती है जब सामान्य इन्द्रिय गोचर बुद्धिबल द्वारा प्रमेय सिद्धि अनिर्वचनीय ही रहती हो । इस दृष्टि से देखा जाए तो जैन अनेकान्तवाद के अनुसार भंगों एवं नयों की अवतारणा से जिस सापेक्ष सत्य के उद्घाटन की उद्घोषणा की जाती है क्या वह वस्तुतः ज्ञान
सभी पर्यायों को बता सकता है ? उत्तर नकारात्मक ही होगा। ऐसी स्थिति में तर्क प्रणाली चाहे एकान्तवादी हो या फिर अनेकान्तवादी वह सिद्धान्ततः वस्तु स्वरूप के एक अवयव का ही प्रतिपादन कर पाती है, समग्रता का नहीं। हां, इतना अवश्य है कि अनेकान्तवाद तर्क की इस विवशता को समझाने की चेष्टा कर रहा है। दूसरी ओर एकान्तवादी सत्य के आग्रह के औचित्य को भी महत्त्व देना चाहिए कि वह आधुनिक व्यवहारवाद अथवा उपयोगितावाद की मूल चेतना को लेकर सत्यानुसन्धान की ओर प्रवृत्त होता है। इन दोनों दृष्टियों के परिप्रेक्ष्य मैं आज अनेकान्तवाद के उद्भव एवं विकास की विविध प्रवृत्तियों का ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। एकान्तवाद तथा अनेकान्तवाद वस्तुतः विरोधीवाद हैं या परवर्ती दार्शनिकों ने साम्प्रदायिक आग्रहों से इनकी ऐसी व्याख्या की है आज के सन्दर्भ में यह प्रश्न भी पुनर्विचारणीय हो गया है। वस्तुस्थिति यह है कि तथाकथित एकान्तवाद कुछ व्यावहारिक अपेक्षाओं से फलित हुआ है । सिद्धान्ततः भारतीय दर्शन के क्षेत्र में 'एकान्तवाद' न तो कोई वाद के रूप में पारिभाषित हुआ है और न ही किसी ऐसे दार्शनिक सम्प्रदाय का कोई नाम लिया जा सकता है जो इस वाद का समर्थक हो । प्रायः जैन दार्शनिक ही अपने से भिन्न वैदिक एवं बौद्ध दर्शन के सिद्धान्तों को 'एकान्तवादी' संज्ञा दे देते हैं। हमें इस तथ्य की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि शंकराचार्य प्रभूति आचार्यों ने भी स्वयं को एकान्तवाद का प्रतिनिधि स्वीकार कर अनेकान्तवाद का खण्डन किया है परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि तदेजति तन्नेजति आदि उपनिषद् वाक्यों पर भाष्य लिखते हुए उन्हें अनेकान्तवादी तर्क योजना का ही आश्रय लेना पड़ा है। इस प्रकार भारतीय दर्शन की साम्प्रदायिक प्रवृत्तियों ने एकान्तवाद और अनेकान्तवाद के मध्य भवित्यानीचित्व की जो भेदक रेखा खींची है आधुनिक सन्दर्भ में उसके पुनर्मूल्यांकन की महती आवश्यकता आ पड़ी है। जैन अनेकान्तवाद की गम्भीरता तब और भी बढ़ जाती है जब हम यह देखते हैं कि वैदिक एवं बौद्ध विचार प्रणालियों ने भी इसके तार्किक औचित्य को मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है।
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ऋग्वेद का ऋषि स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि एक ही सत् विविध रूपों में अभिव्यक्त होता है एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।" ऋग्वेद का नासदीय सूक्त नासदासीन्नो सदासीत की जिस तर्कप्रणाली द्वारा सृष्टि वर्णन की ओर प्रवृत्त हुआ है, पं० दलमुख मालवणिया जी के मतानुसार वह महावीर कालीन अनेकान्त की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि थी जिसे उपनिषदों के काल तक विशेष महत्त्व दिया जाने लगा था ।" मालवणिया जी के अनुसार उपनिषदों के समय तक अनेकान्तवाद के चार पक्ष स्थिर हो चुके थे। वे पक्ष हैं- ( १ ) सत् (विधि) (२) असत् (निषेध) (३) सदसत् (उभय) तथा अवक्तव्य ( अनुभय) । वैदिक एवं औपनिषदिक चिन्तक के समक्ष जब कभी रहस्यात्मक एवं गम्भीर समस्याओं को सुलझाने का प्रश्न आया है तो वह एकान्तवाद से सर्वथा मुक्त रह कर वस्तुस्थिति की विविध संभावनाओं को उसी रूप में अभिव्यक्त करता है जो अनेकान्तवाद को भी सम्मत है ।
१. देवराज, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ० ७६
२. न्यायसून, १.१.१ पर वात्स्यायन भाष्य
३. कठोपनिषद्, २.२३
४. तुलनीय "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य" तत्त्वार्थ सूत्र, १.२६
५. तुलनीय "न मन्त्राणां जामिताऽस्तीति पूर्वमन्त्रोक्तमपि अर्थ पुनराह तदात्मतत्वं यत्प्रकृतमेजति चलति तदेव च नैजति स्वतो नैव चलति अचलमेव सञ्च लतीवेत्यर्थः । " ईशावास्योपनिषद्, ५ पर शांकरभाष्य
६. ऋग्वेद १. १६४. ४६
७. दलसुख मालवणिया, आगम युग का जैन दर्शन, आगरा, १९६६, पृ० ९४
८. वही, पृ० ६५
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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