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आस्था भी प्रकट हुई है । वस्तुतः गांधी जी ने वैदिक धर्म-दर्शन तथा जैन धर्म-दर्शन के उन सभी प्राचीन मूल्यों के सह अस्तित्व को व्यवहार में उतारा है जिन्हें पुराने दार्शनिक एक-दूसरे का विरोधी बताते आए हैं। जैन दर्शनानुसारी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य के पंचमहाव्रतों के आचरण की राष्ट्रीय भूमिका का क्या स्वरूप हो सकता है तथा आधुनिक सन्दर्भ में भी इनकी कितनी प्रासंगिकता हो सकती है - इसका यदि आदर्श देखना हो तो वह गांधी जी के जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। इस प्रकार गांधी जी के सन्दर्भ में योरोपीय दर्शनों की चकाचौंध के बावजूद भी भारतीय धर्म-दर्शन की सार्थकता आज स्वयं सिद्ध है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सभी भारतीय धर्मों और दर्शनों की स्वस्थ मान्यताओं और नैतिक मूल्यों को सम्प्रदायभावना से मुक्त किया जाए। भारत जैसा देश जो सिद्धांततः सर्वधर्म समभाव की चेतना से जुड़ चुका हो उसके सन्दर्भ में सरकार पर ही यह दायित्व नहीं जाता है कि वह सभी धर्मों के प्रति समान आदर अभिव्यक्त करें बल्कि उस देश के सभी धर्मानुयावियों का भी कर्तव्य है कि उनकी धार्मिक मान्यताएं और दार्शनिक चिन्तन सर्वधर्म सहिष्णुता की सद्भावना से अनुप्रेरित रहें । पारस्परिक सद्भाव के बिना किसी भी धर्म और दर्शन की नैतिकता एवं वैज्ञानिकता का कोई अर्थ नहीं रह जाता है तथा साम्प्रदायिकता के पवन इन्हें संदिग्ध दृष्टि से देखा जाता है। विगत शताब्दियों के दार्शनिक इतिहास पर यदि दृष्टिपात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि सभी धार्मिक एवं दार्शनिक सम्प्रदायों ने एक दूसरे की मान्यताओं का खण्डन किया। परिणाम यह निकला कि सभी धर्मों और दर्शनों ने अपनी गरिमा खो दी और उनकी सामाजिक उपादेयता भी क्रमश: लुप्त होती चली गई । निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि योरोपीय समाज चिन्तन की प्रभावशालिता एवं भारतीय धर्म-दर्शन की अप्रासंगिकता का मुख्य कारण साम्प्रदायिक विकृति रही है। इसी विकृति के कारण भारतीयता को भी पर्याप्त आघात पहुंचा है । आज भारत में पाश्चात्य जीवन पद्धति तथा पाश्चात्य जीवन दर्शन के व्यापक प्रचार होने का जहां यह कारण दिया जाता है कि अंग्रेजीशासन की यह देन है वहां यह भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारतीय धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों में सामाजिक नियंत्रण के प्रति चित्प आया है । आज की बदली हुई समाज व्यवस्था की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती है । योरोपीय दर्शनों की प्रभावशालिता को अभी न्यून नहीं किया जा सकता इस समय केवल भारतीय धर्म और दर्शन के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है।
योरोप के आधुनिक दर्शन विज्ञान की खोजों द्वारा उत्पन्न हुई नवीन मानवीय अनुभूतियों का विश्लेषण करते आ रहे हैं इसलिए बौद्धिक जगत् में इन दर्शनों का औचित्य विश्व चिन्तन की मुख्य धारा के साथ स्वीकार किया जाता है। इसके विपरीत भारतीय धर्म-दर्शन उर्वरता की उस पृष्ठभूमि को खो चुके हैं जिसमें आधुनिक मनुष्य की संवेदनाएं पल्लवित हो सकें । भारतीय मनीषी आज भी धर्म-दर्शन के पुराने एवं अर्थहीन विवादों को दुहराने में अपने पांडित्य को सार्थक मानता है जिनकी प्रासंगिकता आज क्षीण हो चुकी है। धर्म-दर्शन की प्राच्य-मान्यताओं-- शब्द- नित्यता, पिठरपाकवाद अथवा पीलूपाकवाद, अन्धकार की स्वतंत्र द्रव्यता, वेदापौरुषेयत्ववाद, सर्वज्ञतावाद की अवधारणाएं आज या तो पुरानी पड़ गई हैं अथवा फिर आधुनिक दार्शनिक जगत् में इनका औचित्य समाप्त हो चुका है। आज न्याय-वैशेषिक के आरम्भवाद सांख्य के सत्कार्यवाद, वेदान्त के अध्यासवाद अथवा विवर्तवाद आदि भारतीय धर्म-दर्शन के सिद्धान्तों की तुलना में डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त एवं आइन्स्टाइन के सापेक्षवादी सिद्धान्त आधुनिक मनुष्य की तर्क प्रणाली के बहुत निकट है। जैन धर्म दर्शन के अनेक सिद्धान्तों के सम्बन्ध में भी यही सत्य लागू होता है ।
५. अनेकान्तवाद तथा आधुनिक तर्क प्रणाली :
रिनेशां के उपरान्त योरोप में जिन नवीन दर्शन पद्धतियों का विकास हुआ है उनके सन्दर्भ में जैन धर्म दर्शन के सभी सिद्धांतों का मूल्यांकन यहां किया जाना असम्भव है। केवल जैन दर्शन के प्राणभूत सिद्धान्त अनेकान्तवाद की पुनर्समीक्षा की जा सकती है। इस सम्बन्ध में डॉ० देवराज ने सुझाया है कि "कोई सत्य या कथन निरपेक्ष रूप से सच्चा होता है या नहीं" इस प्रश्न पर विचार करते हुए जहां हम स्यादवादी जैन विचारकों की उक्तियों पर विचार करेंगे वहां योरोप के संगतिवादी ज्ञान भीमासकों के विमयों पर भी उतना ही ध्यान देना होगा।' इस सन्दर्भ में हमें इस स्थिति की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि भारतीय दर्शन की स्वतः प्रामाण्यवादी प्रवृत्ति की तुलना में योरोपीय संगतिवाद स्वयं को परतः प्रामाण्यवादी कहने में नहीं हिचकिचाता क्योंकि उसके अनुसार ज्ञान- विशेष की सत्यता समष्टि की व्यापकता और सामञ्जस्य पर निर्भर करती है। इसके विपरीत भारतीय स्वतः प्रामाण्य के अनुसार प्रत्येक ज्ञान खण्ड को एकाकी रूप से प्रमाण मानते हैं, यद्यपि जैन दार्शनिकों ने प्रामाण्य को स्वतः एवं परतः दोनों रूपों में स्वीकार किया है इसलिए योरोपीय संगतिवाद से जैन अनेकान्तवाद की यदि तुलना की जाती है तो विशेष विरोध नहीं पड़ता ।
अध्यात्मवादी पाश्चात्य दार्शनिक हिगेल ने जिस संगतिवाद ( कोहिरेन्स थियरी) का प्रतिपादन किया है उसके अनुसार उस ज्ञान
१. देवराज, पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ० २६६
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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