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इस लोक में सत्य ही सारभूत है।' सत्य रहित जो भी है, वह निस्सार है क्योंकि सत्य समस्त भावों का प्रकाश करने वाला है। सत्य की महत्ता प्रदर्शित करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-सत्य महासागर से भी अधिक गम्भीर है, चन्द्र से भी अधिक सौम्य है और सूर्यमण्डल से भी अधिक तेजस्वी है।
सत्य केवल वाणी तक ही सीमित नहीं है। वह अभिव्यक्ति का ही प्रकार नहीं है। सत्य का जन्म सबसे पहले मन में होता है और बाद में वह वाणी के द्वारा व्यक्त होता है तथा आचरण के द्वारा वह मूर्तरूप लेता है। यदि मन में अलग विचारधारा चल रही है, वाणी से अन्य विचार उगले जा रहे हैं और आचारण दूसरे ही रूप में किया जा रहा है, तो वस्तुतः वह व्यक्ति सत्यनिष्ठ नहीं है। उसके जीवन में यथार्थता नहीं है। सत्यनिष्ठ व्यक्ति के मन, वचन और आचरण में एकरूपता रहती है, अनेकता नहीं! उसके अन्तर्मानस में जो चिन्तन चलता है, वही वाणी के द्वारा मूर्त रूप लेता है और वही आचरण के द्वारा जन-जन को अभिनव प्रेरणा देता है। यदि मन में असत्य का विष व्याप्त है और वाणी से सत्य का अमृत बरस रहा है तो वह केवल वाक्छल है । वह वाक्छल दूसरों के विनाश के लिए है। ऐसी मधुर वाणी जो सत्य प्रतीत होती है किन्तु यथार्थत: सत्य नहीं है, वह किपाक फल के सदृश है। जिसमें हलाहल विप रहा हुआ है। ऐसे व्यक्ति को भारतीय चिन्तकों ने धूर्त माना है।
वह विषकुम्भपयोमुख है । वह महात्मा नहीं, दुरात्मा है । भगवान् महावीर ने कहा-सत्य की निर्मल धारा सर्वप्रथम मन में बहनी चाहिए, फिर वचन में, और फिर आचरण में। जिसके मन, वचन और काया में सत्य समान रूप से प्रवाहित है, वह महात्मा है-पवित्र आत्मा है । सत्य जब तक जीवन के अणु-अणु में व्याप्त नहीं होता, तब तक उसमें चमत्कार पैदा नहीं होता है। कोई व्यक्ति प्रतिज्ञा ग्रहण करता है कि मैं अमुक कार्य कर दूंगा, यदि वह कार्य नहीं करता है तो वह सत्य का आचरण नहीं हुआ! राजा हरिश्चन्द्र ने सत्य के लिए ही सब कुछ छोड़ दिया था। प्रश्न व्याकरण में कहा है--"जैसा कहा है वैसा क्रिया के द्वारा साकार करना सत्य है !" सच्चं जह भणियं तह य कम्मुणा होइ (संवरद्वार)। सत्य प्रज्वलित प्रदीप
सत्य जगमगाता हुआ एक प्रज्वलित प्रदीप है, जो जन-जन को आलोक प्रदान करता है । सत्य की चर्चा नहीं, अर्चा आवश्यक है। एक बार पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने अपने वक्तव्य में कहा-'मैंने डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद जी को जीवन में कभी असत्य बोलतेहए नहीं देखा
और न सना ही!" राजनीति में रहकर भी सत्य का प्रयोग जीवन में किया जा सकता है । जो लोग यह समझते हैं कि राजनीति में असत्य के बिना कार्य नहीं चल सकता, उनके लिए प्रस्तुत उदाहरण सर्च-लाइट की तरह उपयोगी है।।
जीवन की ऊष्मा : सत्य
सत्य मानव के उज्ज्वल चरित्र का सजग प्रहरी है। वह प्रहरी जब तक सजग रहता है, तब तक बुराइयाँ फटकने नहीं पातीं। शरीर में से ऊष्मा यदि निकल जाये तो व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता । जब तक ऊष्मा है, शरीर के कण-कण में प्राण है, तब तक वह जीवित है। उसमें चमक-दमक है, वह बढ़ता है, सुन्दर बना रहता है और प्राण निकलते ही वह सड़ता है, गलता है, उसमें कीड़े कुलबुलाने लगते हैं, उस मुर्दे शरीर का स्थान घर नहीं होता, श्मशान होता है। शव का चाहे कितना भी शृंगार किया जाये, वह निरर्थक है। वैसे ही सत्य रहित जीवन की स्थिति होती है। वह भी सत्य की ऊष्मा से रहित निष्प्राण हो जाता है। असत्य धूएं के बादल के सदृश है । वे बादल भले ही उमड़घमडकर आयें, किन्तु वे बिखरने के लिए होते हैं, बरसने के लिए नहीं! उन बादलों से भूमि की प्यास नहीं बुझ सकती, और न खेती ही लहलहा सकती है। असत्य का मूल स्रोत
हमें सर्वप्रथम यह समझना होगा कि असत्य का मूल स्रोत कहां है ? ऐसी कौन-सी आन्तरिक वृत्तियाँ हैं जिसके कारण असत्य जन्म लेता है। न्याय का यह पूर्ण निश्चित सिद्धान्त है कि बिना कारण के कार्य नहीं हो सकता । कारण में जो गुण होंगे, वे कार्य में भी अपने
१. 'सच्चं लोगम्मि सारभूयं ।', प्रश्नव्याकरण, २२ २. 'सच्च 'पभासक भवति सव्वभावाणं ।', वही, २२ ३. 'सच्चं 'गंभीरतरं गहासमुद्दाओ, सच्च सोमतरं चंदमंडलाओ, दित्ततरं सूरमंडलाओ।', वही, २२ ४. 'मणसच्चे, वयसच्चे, कायसच्चे।' ५. 'मनस्येकं वचस्येकं काये चैकं महात्मनाम् । मनस्यन्यद् वचस्यन्यद् काये चान्यद् दुरात्मनाम् ।।'
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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