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बौद्ध दशन में प्रमाण सामान्य के लक्षण स्वसंवित्ति, प्रवृत्तिसामर्थ्य, अविसंवादित्व आदि उपलब्ध होते हैं, परन्तु प्रमाण के इस लक्षण से सम्यक् रूप से निर्णय नहीं होता है अर्थात् स्वपरप्रकाशत्व नहीं करते हैं। यद्यपि बौद्धों द्वारा मानित जो प्रमाण का लक्षण स्वसंवित्ति किया गया है, उसका एक या दूसरे रूप में अन्य दार्शनिकों पर प्रभाव अवश्य पड़ा। जैनेतर दर्शनों में सिर्फ बौद्धदर्शन में ही स्वसंवेदन विचार का प्रवेश हुआ। वस्तुत: बौद्ध दर्शन की इस परिभाषा से ज्ञानसामान्य में स्वपरप्रकाशत्व का संकेत अवश्य उपलब्ध हुआ।
बौद्ध दर्शन में प्रमा के करण के रूप में सारूप्य, तदाकारता को स्वीकृत किया है। परन्तु अर्थाकारिता ज्ञान के साथ अन्वय और व्यतिरेक न होने से प्रमा के करण के रूप में प्रयोजक नहीं हो सकती। अर्थाभाव में भी उस वस्तु का ज्ञान हुआ देखा जाता है। सीप में चांदी का प्रतिभास करने वाला ज्ञान प्रतिभास के अनुसार बाह्यार्थ की प्राप्ति न होने के कारण प्रमाण कोटि में नहीं डाला जा सकता। संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय-ये ज्ञान भी तो अंततोगत्वा पदार्थाकार ही होते हैं।
संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय-इनके द्वारा वस्तु का यथार्थ रूप से निर्णय नहीं किया जाता है, अत: आचार्यों ने इन्हें प्रमाण से बहिष्कृत किया है। प्रमाण के अन्य लक्षणों में पाये जाने वाले निश्चित, बाधवजित, अदुष्टकारणजन्यत्व, लोकसम्मतत्व, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक विशेषण सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं-इस एक ही विशेष पद से गृहीत हो जाते हैं।
जैनेन्द्र व्याकरण में कहा है- साधकतमं करणं, इस परिभाषा के अनुसार प्रमाण शब्द करण साधन है, अतः कर्ता-प्रमाता, कर्मप्रमेय और क्रिया-प्रमिति प्रमाण नहीं होते। यद्यपि वही आत्मा प्रमितिक्रिया में व्याप्त होने के कारण प्रमाता कहलाता है और वह फिर भी पर्याय की दृष्टि से यदि प्रमिति क्रिया में साधकतम हो तो प्रमाण कहलाता है। आचार्यों ने प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता को द्रव्यदृष्टि से अभिन्न माना है। प्रमाण शब्द का करणार्थक ज्ञान पद शब्द के साथ सामानाधिकरण्य भी सिद्ध हो जाता है।" इन्द्रियादि सामग्री ज्ञान की उत्पत्ति में तो साक्षात् कारण होती है परन्तु अर्थोपलब्धि (प्रमा) में साधकतम करणज्ञान ही होता है। ज्ञान को उत्पन्न किये बिना वह सीधे अर्थोपलब्धि नहीं करा सकती। प्रमा भाबसाधन है और वह प्रमाण का फल है जबकि ज्ञान करण साधन और स्वयं करणभूत प्रमाण है।
युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने जैनसिद्धांतदीपिका में कहा है-यथार्थनिर्णायिज्ञानं प्रमाणम् अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थ का सम्यक् रूप से निर्णय किया जाता है उसे प्रमाण कहते हैं । अतः सम्यग्ज्ञान ही एकांत रूप से प्रमाण हो सकता है।
यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय के कतिपय आचार्यों ने धारावाहिक और गृहीतग्राही ज्ञान को प्रमाण नहीं माना है परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय का कहना है कि ज्ञान की प्रमाणता का आधार अविसंवाद या सम्यग्ज्ञान है, वह चाहे गृहीतग्राही हो चाहे अगृहीतग्राही। आर्थिक तात्पर्य में मतभेद न होने के कारण भी दिगम्बर-श्वेताम्बर आचार्यों के प्रमाण के लक्षण में शाब्दिक भेद है। संभवतः यह भेद किसी अंश में विचार विकास का सूचक और तत्कालीन भिन्न साहित्य के अभ्यास का परिणाम है।
१. 'स्वसंवित्तिः फलं चाव तद्रूपादर्थनिश्चयः ।
विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ।', प्रमाणसं०, १/१० २. 'स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्', प्रमाणनय०, १/२ ३. 'प्रमाण तु सारूप्य, योग्यता वा ।', तत्त्वार्थश्लोकवातिक, १३/४४ ४. 'तदन्वयव्यतिरेकानुभावाच्च, परीक्षामुख, प्र०१ ५. 'अनुभयनोभयकोटिस्पर्शीप्रत्ययः संशय:', प्रमाणमीमांसा, १/५ ६. अष्टसहस्री ७. 'तत्र निर्णय: संशयाउनध्यवसायाविकल्पकत्वरहितं ज्ञानम् । ततो निर्णय-पदेनाज्ञानरूपस्येन्द्रियसन्निवर्षादः, ज्ञानरूपस्यापि संशयादेः प्रमाणत्वनिषेधः।',
प्रमाणमीमांसा, १/२ ८. प्रमेयकमलमार्तण्ड ६.जैनसिद्धांतदीपिका, प्र०६ १०. न्याय दीपिका, प्र०१ ११. वहीं १२. 'तस्याशानरूपस्य प्रमेयार्थवत् स्वपरपरिच्छित्तो साधकतमत्वाभावत: प्रमाणत्वायोगात् तत्परिच्छित्तौ साधकतमत्वस्य अज्ञानविरोधिना ज्ञानेन व्याप्तत्वात्', .
प्रमेयकमलमार्तण्ड, पृ०८ 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभाव ज्ञानम्', सन्मतिटीका, पृ० ५१८ १३. संशयादिराहित्येण यथार्थनिर्णीयते इत्येवं शीलं ज्ञानं प्रमाणम्', जैन सिद्धांतदीपिका, पृ०६ १४. 'गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थ व्यवस्यति ।
तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।', तत्त्वार्थश्लो०, १/१०/७८
जैन दर्शन मीमांसा
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