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तरह अज्ञाननिवृत्ति में प्रमाण ही साधकतम होता है । जानाति क्रिया जानने रूप क्रिया ज्ञान गुण की पर्याय है, अत: उसमें अव्यवहित कारण ज्ञान ही हो सकता है। हितप्राप्ति और अहितपरिहार करने में समर्थ प्रमाण ही हो सकता है।
स्वरूप की दृष्टि से प्रत्येक ज्ञान अविसंवादी होता है, चाहे संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रूप में क्यों न हो। यह नियम नहीं है कि ज्ञान घटपटादि पदार्थों की तरह अज्ञात रूप में उत्पन्न हो जाय और पीछे मन आदि के द्वारा उसका ग्रहण हो। यदि ज्ञान अपने स्वरूप को न जाने तो उसके द्वारा पदार्थ का बोध भी नहीं हो सकता। अतः संशयादि ज्ञानों में भी ज्ञानांश का अनुभव अपने आप उसी ज्ञान के द्वारा होता है। जो ज्ञान स्वरूप का ही प्रतिभास करने में असमर्थ है, वह पर का अवबोधक कैसे हो सकता है।'
स्वरूप की दृष्टि से सभी ज्ञान प्रमाण हैं । प्रमाणता और अप्रमाणता का विभाग बाह्य अर्थ की प्राप्ति और अप्राप्ति से संबंध रखता है। स्वरूप की दृष्टि से न कोई ज्ञान प्रमाण है और न प्रमाणाभास ।'
आचार्यों ने प्रमाण के लक्षण में स्वपरावभासक विषय दिया है। उस तत्वज्ञान को भी प्रमाण कहा है जो एक साथ सबका अवभासक होता है। ज्ञान चाहे अपूर्व पदार्थ को जाने या गृहीत अर्थ को, वह स्वार्थव्यवसायात्मक होने से प्रमाण ही है। कतिपय आचार्यों ने अविसंवाद को प्रमाणता का आधार माना है।
उत्तरकालीन जैन आचार्यों ने प्रमाण का लक्षण-सम्यग्ज्ञान और सम्यगर्थनिर्णय किया है अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थ का यथार्थ रूप से निर्णय किया जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं।
यथार्थ ज्ञान प्रमाण है । ज्ञान और प्रमाण का व्याप्य-व्यापक संबंध है। ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य है। ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यक् निर्णायक ज्ञान यथार्थ होता है और संशय, विपर्यय आदि ज्ञान अयथार्थ । प्रमाण केवल यथार्थ-ज्ञान होता है । वस्तु का संशयादि से रहित जो निश्चित ज्ञान होता है, वह प्रमाण है।
प्रमाण सामान्य लक्षण की तार्किक परम्परा के उपलब्ध इतिहास में कणाद का स्थान प्रथम है। उन्होंने अदुष्टमविधा कहकर प्रमाण सामान्य का लक्षण कारण-शुद्धि-मूलक सूचित किया है। आचार्य वात्स्यायन ने उपलब्धिहेतुत्व को प्रमाण सामान्य का लक्षण कहा है। संभवतः उन्होंने उपलब्धि रूप फल की ओर दृष्टि न रखकर ऐसा कहा हो । वाचस्पति मिश्र ने अर्थ पद का संबंध जोड़कर प्रमाण सामान्य का लक्षण सूचित किया। प्रमाण सामान्य का यह लक्षण बाद के सभी न्याय-वैशेषिक दर्शनों में मान्य है।
उपर्युक्त प्रमाण-सामान्य की परिभाषा में स्वपरप्रकाशत्व की चर्चा का विवेचन नहीं मिलता, न सम्यक रूप से जानने की क्रिया का उल्लेख है। अत: प्रमाण-सामान्य लक्षण सम्यक् प्रकार से घटित नहीं होता है।
___ यद्यपि प्रभाकर (मीमांसक) ने अनुभूति मात्र को ही प्रमाण माना है तथा कुमारिल भट्ट ने अनधिगतार्थगन्तु को प्रमाण माना है।" परन्तु इस लक्षण से भी स्वपरप्रकाशत्व का बोध नहीं होता है।
१. 'हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्', परीक्षामुख, १/२ २. "भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिलवा।
बहिप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते ॥', आप्तमीमांसा, ७३ ३. "प्रमेयं नान्यथा गृह णातीति यथार्थत्वमस्य', भिक्षुन्याय०, १/११ ४. 'सर्व जानं स्वापेक्षया प्रमाणमेव, न प्रमाणाभासम् ।
बहिरपिक्षया तु किंचित् प्रमाण, किंचित् प्रमाणाभासम् ॥', प्रमाणनयतत्वालोकालंकार, १/१६ ५. 'प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाविजितम्', न्यायावता०, श्लो०१ _ 'स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्', बृ० स्वयं०, ६३ ६. 'प्रमाणाविसंवादिज्ञानं अनधिगतार्थाधिगमलक्षणम्', अष्टसहस्त्री, पृ० १७ ७. 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाण', न्याय दीपिका ___ 'सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम्', प्रमाणमीमांसा, १/२ ८. न्यायभाष्य, १/१/३ ६. तात्पर्य०, पृ०२१ १०. न्यायकु०,४/१/१५ ११. 'स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्', तत्त्वार्थश्लोक०, १/१०/७७
१२. 'अनुभूतिश्च प्रमाणम्', बृहती, १/१/५ . १३. 'अनधिगतार्थस्तु प्रमाणम् इति भट्टमीमांसका आहुः', सि० चंद्रो०, २०
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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