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भी देखी जाती है। वर्षा ऋतु के न होने पर भी धारासार वृष्टि होती है अतएव काल के कारण संसार को सुखी एवं दुःखी मानना अनुचित है। काल को सृष्टि का कारण मानने से कर्त्ता का कर्तृत्व गुण विफल हो जाता है।'
२. नियतिवाद - नियति से ही सभी पदार्थ उत्पन्न होते हैं अर्थात् जो जिस समय जिससे उत्पन्न होता है वह उससे नियत रूप में ही उत्पत्ति-लाभ करता है । जटासिंह नन्दी ने इस वाद का खण्डन करते हुए कहा है कि इस वाद के मान लेने पर कर्मों के अस्तित्व तथा तदनुसार फल प्राप्त होने में व्यवधान उत्पन्न होगा । कृतकर्मों के अभाव से व्यक्ति सुख-दुःखहीन हो जाएगा। सुख से हीन होना किसी भी जीव को अभीष्ट नहीं है।
३. स्वभाववाद – स्वभाववादियों के अनुसार वस्तुओं का स्वतः परिणत होना स्वभाव है। उदाहरणार्थ, मिट्टी से घड़ा ही बनता है, कपड़ा नहीं । सूत से कपड़ा ही बनता है, घड़ा नहीं। इसी प्रकार यह जगत् भी अपने स्वभाव से स्वयं उत्पन्न होता है । जटासिंह नन्दी ने इस बाद पर आपत्ति उठाते हुए कहा है कि स्वभाव को ही कारण मान लेने पर कर्त्ता के समस्त शुभ तथा अशुभ कर्मों का औचित्य समाप्त हो जाएगा। जीव जिन कर्मों को नहीं करेगा, स्वभाववाद के अनुसार उनका फल भी उसे भोगना पड़ेगा। इन्धन से अग्नि का प्रकट होना उसका स्वभाव है परन्तु इन्धन के ढेर मात्र से अग्नि की उत्पत्ति असंभव है। इसी प्रकार स्वर्णमिश्रित मिट्टी या कच्ची धातु से स्वतः ही सोना उत्पन्न नहीं हो जाता।" जटाचार्य के अनुसार स्वभाववाद मनुष्य के पुरुषार्थ को निष्फल सिद्ध कर देता है, जो अनुचित है ।
४. यदृच्छावाद - यह वाद भी प्राचीन काल से चला आ रहा वाद है। महाभारत में इसके अनुयायियों को अहेतुवादी कहा गया है। गुणरत्न के अनुसार बिना संकल्प के ही अर्थ-प्राप्ति होना अथवा जिसका विचार ही न किया उसकी अंकित उपस्थिति होना पदच्छावाद है। यवृच्छावादी पदार्थों की उत्पत्ति में किसी नियत कार्य-कारण-भाव को स्वीकार नहीं करते यदृच्छा से कोई भी पदार्थ जिस किसी से भी उत्पन्न हो जाता है । उदाहरणार्थ कमलकन्द से ही कमलकन्द उत्पन्न नहीं होता, गोबर से भी कमलकन्द उत्पन्न होता है। अग्नि की उत्पत्ति अग्नि से ही नहीं, अपितु अरणि-मन्थन से भी संभव है। इस वाद को कभी स्वभाववाद अथवा नियतिवाद से अभिन्न माना जाता है । वरांगचरितकार जटासिंह ने इस वाद की चर्चा नहीं की है। अन्य महाकाव्यों में भी इसके खण्डन का उल्लेख नहीं है ।
५. सत्कार्यवाद सांख्यदर्शनानुसारी सत्कार्यवाद के अनुसार यह स्वीकार किया जाता है कि जैसा कारण होता है उससे वैसा ही कार्य उत्पन्न होता है ।" सांख्य दर्शन के इस वाद के सन्दर्भ में जटासिंह नन्दी का आक्षेप है कि अव्यक्त प्रकृति से संसार के समस्त व्यक्त एवं मूर्तिमान पदार्थ कैसे उत्पन्न हो सकेंगे ?" सांख्यों के अनुसार जीव को जो 'अकर्त्ता' कहा गया है वह भी अनुचित है । वीर नन्दी कृत चन्द्रप्रभचरित में इसका खण्डन करते हुए कहा गया है कि जीव को अकर्त्ता मान लेने पर उस पर कर्म-बन्ध का भी अभाव रहेगा तथा
१. "अथजीवगणेष्वकालमृत्युः फलपुष्पाणि वनस्पतिष्वकाले ।
'दशनै देशन्त्यकाले मनुजास्तु प्रसवन्त्यकालतश्च ।। " वरांगचरित, २४/२९
भुजगा
२. "अथ वृष्टिरकालतस्तु दृष्टा न हि वृष्टिः परिदृश्यते स्वकाले ।
तत एव हि कालतः प्रजानां सुखदुःखात्मकमित्यभाषणीयम् ।।" वरांगचरित २४ / ३०
३. "यदि कालबलात्प्रजायते चेद्विबलः कर्त्तुं गुण: परीक्ष्यमाणः ।” वरांगचरित, २४ / २८
४. 'नियतिर्नाम तत्वान्तरमस्ति यद्वशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण प्रादुर्भावमश्नुवते नान्यथा ।" षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्न- टीका, पृ० १८
५. "नियतिनियता नरस्य यस्य प्रतिभग्नस्थितिकर्मणामभावः ।
तस्यात्सुखीनामष्टमाप्तम्॥" वरांगचरित २४/४१
६. स्वभाववादिनो ह्येवमाहुः इह वस्तुनः स्वत एव परिणति: स्वभावः सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते । तथाहि-- मृदः कुम्भो भवति न पटादि:, तन्तुभ्योऽपि
पट उपजायते न घटादिः " षड्दर्शन०, १ पर गुणरत्न- टीका, पृ० १६
सावरथेन
अकृतागमदोषदर्शनं च तदवश्यं विदुषामचिन्तनीयम् ॥ " वरांगचरित २४ / ३८
८. "स्वयमेव न भाति दर्पणः सम वह्निः स्वमुपैति काष्ठभारः ।
न हि धातुरुपैति काञ्चनत्वं न हि दुग्धं घृतभावमभ्युपैत्यवीनाम् ||" वरांगचरित, २३ / ३६
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६. "ते ह्यवमाहुः न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावस्तथा प्रमाणेनाग्रहणात् । तथाहि - शालूकादपि जायते शालूको गोमयादपि जायते शालूकः । वह्नरपि जायते द्विवादिन्दय, १ पर गुणरत्न-टीका ०२२
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१०. असदकरणादुपादानग्रहणात्सर्वसंभवात् ।
शक्तस्य शक्यकरणात्कारणभावाच्च सत्कार्यम् ||" सांख्यकारिका,
११. "प्रकृतिर्महदादि भाव्यते चेत्कथमव्यक्ततमान्नु मूर्तिमत्स्यात् ।
इह कारणतो नु कार्यमिष्टं किमु दृष्टान्तविरुद्धतां न याति ॥” वरांगचरित, २४ /४३
जैन दर्शन मीमांसा
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