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समर्पित साधुवर्ग तथा समाज व्यवस्था के प्रभावशाली व्यक्ति जब तक सक्रिय भूमिका का निर्वाह नहीं करेंगे तब तक धर्म और दर्शन की प्रासंगिकता की वैचारिक मीमांसा मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है । धर्म की कूटस्थता और शादवतता के एकान्तवादी आग्रह का समर्थक वर्ग अब भी यही मानता आ रहा है कि धर्म और दर्शन सदैव जीवन की शाश्वत समस्याओं को लेकर चलते हैं इसलिए किसी भी युग में इनकी प्रासंगिकता का प्रश्न ही नहीं उठता। परन्तु इतने मात्र से ही सन्तोष कर लेने पर धर्म-दर्शन की प्रासंगिकता युग सन्दर्भ में अनालोचित ही रह जाती है।
प्रत्येक धर्म और दर्शन को युगानुसारी आवश्यक मूल्यों के अनुरूप बदलना ही पड़ा है। जैन धर्म-दर्शन के क्षेत्र में यही धार्मिक समाजशास्त्र लागू हुआ है। जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने ही सर्वप्रथम असि-मसि-कृषि का उपदेश देकर समाज व्यवस्था को संयमित किया। उन्होंने ही भोजन पकाने, बर्तन बनाने, वस्त्र बुनने आदि की विधियों का सर्वप्रथम आविष्कार किया। इस प्रकार आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का महत्त्वपूर्ण योगदान समाज-व्यवस्था को व्यवस्थित करने में रहा है। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के काल तक चातुर्याम धर्म-प्रभावना (पाणातिपात वेरमण=अहिंसा; मुसावायाओ वेरमण =सत्य; अदिन्नादानाओ वेरमण =अस्तेय; बहिद्धाओ वेरमण अपरिग्रह) को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा था तथा अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर ने पंच महाव्रतों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य) की उद्भावना करते हुए समग्र धर्म-व्यवस्था को नवीन दिशाएं प्रदान की हैं । जैन तीर्थंकर परम्परा के आधार पर यह सिद्ध होता है कि धर्म के कूटस्थ मूल्य भी युग सन्दर्भ में रूपान्तरित हो सकते हैं परिणमन शील मूल्यों का तो कहना ही क्या । भगवान् महावीर कालीन जैन धर्म की लगभग सभी व्यवस्थाओं को युग परिस्थितियों का परिणाम कहा जा सकता है। आज की भांति भगवान् महावीर के काल में विज्ञान और तकनीकी शास्त्र उन्नत अवस्था में पहुंच चुका था तथा युग चिन्तन का स्वर अनेक प्रकार के वादो-प्रतिवादों से वैसे ही गुंजायमान था जैसा आज। इन परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप धर्म चिन्तन की मुख्य धारा-वैदिक धारा के समकक्ष अन्य वेदेतर साम्प्रदायिक संगठनों ने ऐसी स्थिति लादी थी जिसके कारण वैदिक धर्म और दर्शन की अनेक मान्यताओं को संदिग्ध दृष्टि से देखा जाने लगा था। भगवान् महावीर और गौतम बुद्ध ने युग चेतना के उस नवीन स्वर को सुना तथा युगीन चिन्तन के अनुरूप धर्म और दर्शन को नवीन आयाम दिए । महावीर युगीन धर्म चेतना का यदि समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया जाए तो इसकी दो प्रमुख विशेषताएं रही थीं---- (१)धर्म और दर्शन की मान्यताओं को युग के वैज्ञानिक चिन्तन के अनुरूप विश्लेषित करना तथा (२) समग्र युग चिन्तन के वादों-प्रतिवादों में तालमेल बैठाने की सद्भावना का प्रसार करते हुए, सामाजिक न्याय की दृष्टि से सिद्धान्तों की स्थापना करना। इस प्रकार भगवान महावीर का तत्त्वचिन्तन एक ओर विज्ञाननिष्ठ था तो दूसरी ओर युगीन समाज क्रान्ति की अवधारणा से वह सुवासित भी रहा था। ऐसी ही विशेषता तत्कालीन बौद्ध धर्म की भी थी। दोनों ही धर्मों ने धर्मक्रान्ति का ऐसा चक्र चलाया कि वैदिक धर्म के अन्धविश्वासों पर टिके हुए स्तम्भ ढहने लगे और कुछ ही समय में बौद्ध तथा जैन धर्म अधिकाधिक लोकप्रिय होते चले गए। कारण यह था कि पुरोहित वर्ग के स्वार्थों पर निर्मित धार्मिक अन्धविश्वासों और शुष्क-कर्मकाण्डों से खिन्न जन मानस को भगवान् महावीर और बुद्ध के धर्मों में वह सब कुछ मिल गया जिसकी उसे उस समय तलाश थी और जो उसके तर्कवादी वैचारिक भूख को शान्त कर सकता था। भगवान् बुद्ध ने उद्घोषित किया कि सत्य को परीक्षा और अनुभव के आधार पर स्वीकार करो। इसी प्रकार भगवान् महावीर ने भी कहा है कि जो लोगस्स सेसणं चरे अर्थात किसी का अनुकरण न करो सत्य को स्वयं जानो क्योंकि कोई उधार लिया गया सत्य मुक्त नहीं करता उल्टे वह परिग्रह बन जाता है।
अन्य धर्मों की भांति उत्तरवर्ती जैन धर्म में भी कभी कभी कूटस्थता के प्रति विशेष आग्रह रखने की स्थिति आई है। आचार्य कुन्दकुन्द के समय तक जैन धर्म अनागार धर्म के उपदेशों को ही वरीयता देता है तथा सागार धर्म के उपदेश को उपेक्षा दृष्टि से देखता है। परन्तु यह स्थिति अधिक नहीं चल पाई । 'धार्मिकों के बिना धर्म नहीं' का नारा बुलन्द हुआ जिसके फलस्वरूप जैन धर्म में नौवीं-दसवीं शताब्दी के लगभग नवीन मूल्य प्रविष्ट हुए। श्रावक धर्म को अभिलक्ष्य कर ग्रन्थ लिखे जाने लगे तथा युगानुसारी अनेक धार्मिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म ने ब्राह्मण संस्कृति के मूल्यों को भी अपने धर्म में समाहित कर लिया। इस दृष्टि से पहल करते हुए सर्वप्रथम आदिपुराणकर जिनसेनाचार्य ने ब्राह्मण धर्म के सोलह संस्कारों को धार्मिक मान्यता प्रदान की। इसी प्रकार सोमदेवाचार्य ने भी यह उद्घोषणा कर दी कि जिन जिन सिद्धान्तों, मान्यताओं आदि के स्वीकार करने पर जैन धर्म के सम्यक्त्व पर कोई दोष नहीं आता है उन्हें स्वीकार कर
१. नेमिचन्द्र शास्त्री, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, वाराणसी, १९६८, पृ०१ २. जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, वाराणसी, १९६५, पृ०३ ३. हरेन्द्र प्रसाद वर्मा, जैन दर्शन और आधुनिक सन्दर्भ, प्रस्तुत खण्ड ४. कैलाशचन्द्र शास्त्री, दक्षिण भारत में जैन धर्म, वाराणसी, १९६७, पृ० १६५ ५. नेमिचन्द्र शास्त्री, आदिपुराण में प्रतिपादित भारत, पृ० १६५
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन प्रन्थ
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