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उसके पाप पुण्य भी नहीं हो सकेंगे। 'बन्ध' के न होने पर 'मोक्ष' भी संभव नहीं है।' चन्द्रप्रभचरित-कार का कहना है कि कापिल मत में आत्मा को भोक्ता कहकर उसे मुक्ति-क्रिया का कर्ता तो मान लिया गया है परन्तु उसके कर्तृत्व को छिपाने की चेष्टा भी की गई है जो अनुचित है । वीरनन्दी के अनुसार प्रधान प्रकृति के बन्ध होने की जिस मान्यता का सांख्य समर्थन करता है, वह भी अयुक्तिसंगत है क्योंकि सांख्य दर्शन में प्रकृति अचेतन मानी गई है और अचेतन का न बन्ध हो सकता है और न मोक्ष' । इस प्रकार हम देखते हैं कि जटासिंह नन्दी ने तथा वीर नन्दी ने सांख्य तन्त्र के परिप्रेक्ष्य में पुरुष तथा प्रकृति दोनों के बन्ध तथा मोक्ष की स्थिति को अयुक्तिसंगत सिद्ध किया है।
६. शून्यवाद-बौद्ध दार्शनिकों के एक सम्प्रदाय के अनुसार यह जगत् शून्य-स्वरूप है। अविद्या के कारण इसी शून्य से जगत् की उत्पत्ति मानी गई है। इस वाद पर आक्षेप करते हुए जटासिंह नन्दी का कहना है कि चल-अचल पदार्थों को शून्य की संज्ञा देने से न केवल पदार्थों का ही अभाव होगा, अपितु ज्ञान भी शून्य अर्थात् अभाव-स्वरूप हो जाएगा, जिसका अभिप्राय है संसार के समस्त जीवों को ज्ञानशून्य मानना । ऐसी स्थिति में शून्यवादी तत्त्वज्ञान को ग्रहण करने के प्रति भी असमर्थ रह जाएगा। इस सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए जटाचार्य यह सुझाव देते हैं कि पदार्थों के किसी एक विशेष रूप में न रहने से उस पदार्थ को सर्वथा शून्य मानना अनुचित है, क्योंकि पदार्थ किसी एक रूप में नष्ट हो जाने के बाद भी सत्तावान् रहते ही हैं।
७.क्षणिकवाद–बौद्धों के एक दूसरे सम्प्रदाय की इस मान्यता का, कि सभो भाव एवं पदार्थ क्षणिक हैं, खण्डन करते हुए जटासिंह नन्दी कहते हैं कि शुभ तथा अशुभ कर्मों का भेद तब समाप्त हो जायगा। संसार के प्राणी जो अनेक गुणों को धारण करने की चेष्टा करेंगे वे निराश ही रह जाएंगे क्योंकि तब गुण तथा गुणी भिन्न क्षणों में उदित होंगे। पद्मानन्द महाकाव्य में भी क्षणिकवाद की आलोचना करते हुए कहा गया है कि समस्त संसार के ज्ञानादि भी बौद्ध मतानुसार क्षणिक मान लिये जाने पर स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि भाव; पिता-पुत्र, पतिपत्नी आदि सम्बन्ध तथा पाप-पुण्य आदि व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो जाएगी। चित्त-सन्तान-ज्ञान की धारा को आत्मा सिद्ध करने की बौद्ध मान्यता का भी खण्डन किया गया है।"
८. नैरात्म्यवाद-बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध ने आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकारा है। जटासिंह नन्दी के अनुसार तब भगवान बुद्ध की करुणा का क्या होगा? क्योंकि आत्मा तथा चेतना के बिना करुणा कहां उत्पन्न होगी? इस प्रकार आत्मा का निराकरण करना स्वयं भगवान बुद्ध के करुणाशील होने के प्रति ही सन्देह उत्पन्न करता है।
६. वैदिक एवं पौराणिक देववाद-जैसा कि पहले स्पष्ट किया गया है, वेदमूलक ब्राह्मण संस्कृति में पुरुष, ईश्वर द्वारा सृष्टि होने की मान्यता दार्शनिक वाद के रूप में पल्लवित हुई थी। जैसे-जैसे वैदिक धर्म पौराणिक धर्म के रूप में अवतरित हुआ, अनेक देवशक्तियों के साथ सृष्टि का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा। इसी विश्वास के कारण ब्राह्मण संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि आराध्य देव बन गए।
१. "न चाप्यकत्तुंता तस्य बन्धाभावादिदोषतः ।
कथं ह्यकुर्वन्बध्येत कुशलाकुशल क्रियाः ॥" चन्द्रप्रभचरित, २/८१ २. "भुक्तिक्रियायाः कत्तुत्व भोक्तात्मेति स्वयं वदन् ।
तदेवापह्न वानः सन्कि न जिहति कापिलः ॥" चन्द्रप्रभ०, २/८१ ३. "अचेतनस्य बन्धादि: प्रधानस्याप्ययुक्तिकः ।
तस्मादकत्र्तृता पापादपि पापीयसी मता ॥" चन्द्रप्रभ०, २/८३ ४, "यदि शून्यमिदं जगत्समस्तं ननु विज्ञप्तिरभावतामुपैति ।
सदभावमुपागतोऽनभिज्ञो विमति: केन स वेत्ति शून्यपक्षम् ।।" वरांगचरित, २४/४४ ५. "अथ सर्वपदार्थसंप्रयोग: सुपरीक्ष्य सदसत्प्रमाणभावान् ।
न च संभवति ह्यसत्सु शून्यं परिदृष्टं विगमे सतो महद्भिः ।।" वरांगचरित, २४/४५ ६. "क्षणिका यदि यस्य सर्वभावा फलस्तस्य भवेदयं प्रयासः ।
गुणिनां हि गुणेन च प्रयोगो न च शब्दार्थमवैति दुर्मतिः॥" वरांगचरित, २४/४६ ७. पद्मानन्द, ३/१६०-६५
तुलनीय-"मन्त्रिन् ! विमुञ्च क्षणिकत्ववादितां निरन्वयं वस्तु यदीह दृश्यते ।" पद्मानन्द, ३/१६० ८. चन्द्रप्रभ०, २/८४-८५ ९. "नैरात्म्यशून्यक्षणिकप्रवादाद् बुद्धस्य रत्नत्रयमेव नास्ति ।" वरांगचरित, २५/८२
"मृषैव यत्नात्करुणाभिमानो न तस्य दृष्टा खलु सत्त्वसंज्ञा।" वरांगचरित, २५/८३
आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज जी अभिनन्दन ग्रन्थ
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