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सत्यों को भी बगल में मूक एवं गौण स्वीकृति दिये रहता है। अतः किसी एक पक्ष एवं एक सत्यांश के प्रति एकान्त अन्ध आग्रह न रखकर . उदारतापूर्वक अन्य पक्षों एवं सत्यांशों को भी सोचना-समझना और अपेक्षापूर्वक उन्हें स्वीकार करना, यही है महावीर का अनेकांतदर्शन।
भगवान महावीर ने कहा-किसी एक पक्ष की सत्ता स्वीकार भले ही करो, किन्तु उसके विरोधी जैसे प्रतिभासित होने वाले (सर्वथा विरोधी नहीं) दूसरे पक्ष की भी जो सत्ता है, उसे झुठलाओ मत । विपक्षी सत्य को भी जीने दो, चूंकि देश-काल के परिवर्तन के साथ आज का प्रच्छन्न सत्यांश कल प्रकट हो सकता है, उसकी सत्ता, उसका अस्तित्व व्यापक एवं उपादेय बन सकता है-अतः हमें दोनों सत्यों के प्रति जागरूक रहना है, व्यक्त सत्य को स्वीकार करना है, साथ ही अव्यक्त सत्य को भी। हां, देश, काल, व्यक्ति एवं स्थिति के अनुसार उसकी कथंचित् गौणता, सामयिक उपेक्षा की जा सकती है, किन्तु सर्वथा निषेध नहीं।
भगवान् महावीर का यह दार्शनिक चिंतन, सिर्फ दर्शन और धर्म के क्षेत्र में ही नहीं, किंतु संपूर्ण जीवन को स्पर्श करने वाला चिंतन है । इसी अनेकांतदर्शन के आधार पर हम गरीबों को, दुर्बलों को और अल्पसंख्यकों को न्याय दे सकते हैं, उनके अस्तित्व को स्वीकार कर उन्हें भी विकसित होने का अवसर दे सकते हैं। आज विभिन्न वर्गों में, राष्ट्र-जाति-धर्मों में जो विग्रह, कलह एवं संघर्ष हैं, उसका मूल कारण भी एक दूसरे के दृष्टिकोण को न समझना है, वैयक्तिक आग्रह एवं हठ है। अनेकान्त ही इन सब में समन्वय स्थापित कर सकता है। अनेकान्त संकुचित एवं अनुदार दृष्टि को विशाल बनाता है, उदार बनाता है और विशालता, उदारता ही परस्पर सौहार्द, सहयोग, सद्भावना एवं समन्वय का मूल-प्राण है।
अनेकांतवाद वस्तुतः मानव का जीवन-धर्म है, समग्र मानव-जाति का जीवन-दर्शन है। आज के युग में इसकी और भी आवश्यकता है। समानता और सहअस्तित्व का सिद्धान्त अनेकांत के बिना चल ही नहीं सकेगा। उदारता और सहयोग की भावना तभी बलवती होगी, जब हमारा चितन अनेकांतवादी होगा। भगवान महावीर के व्यापक चितन की यह समन्वयात्मक देन-धार्मिक और सामाजिक जगत् में, बाह्य
और अन्तर्जीवन में सदा-सर्वदा के लिए एक अद्भुत देन मानी जा सकती है। अस्तु, हम अनेकान्त को समग्र मानवता के सहज विकास की, विश्व-जनमंगल की धुरी भी कह सकते हैं।
जइ जिणमयं पवंजह ता मा ववहारणिच्छये मुअह । एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्च ।। चरणकरणप्पहाणा ससमय परमत्वमुक्कवावारा। चरणकरणं ससारं णिच्छयसुद्धं ण जाणंति ।। णिच्छय मालंबता णिच्छयदो णिच्छयं अजाणता ।
णासिति चरणकरणं वाहिरकरणालसा केई ॥ आचार्यों ने कहा है- यदि तुम जिनमत को चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय में से किसी भी नय को मत छोड़ो। व्यवहार के बिना तीर्थ का तथा निश्चय के बिना तत्त्व का लोप हो जाता है। यह न मानकर जो व्यक्ति केवल बाह्य-चरित्र को प्रधान मानता है, वह वास्तव में आत्मकल्याण के व्यापार से रहित है। ऐसा व्यक्ति चरण-क्रिया को ही आत्म-सिद्धि का सार समझ लेता है। इसी प्रकार जो केवल निश्चयनय का ही अवलम्बन लेने वाला है यह निश्चय है कि वह निश्चयनय को नहीं समझता। ऐसा व्यक्ति स्वयं बाह्य-चारित्र में आलसी हो जाता है और चारित्र-धर्म को नष्ट कर देता है। भाव यह है कि निश्चयहीन-व्यवहार निराधार है और व्यवहारहीन-निश्चय अवास्तविक है अर्थात् सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए व्यवहार और निश्चय-इन दोनों दृष्टियों में सन्तुलन रखना आवश्यक है। (आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज कृत उपदेशसारसंग्रह, भाग-६, दिल्ली, वीरनि० सं० २४६० से उद्धृत)
जैन दर्शन मीमांसा
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