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उनके मत में व्यवहारमय सत्यार्थ को पूर्णतया प्रकाशित नहीं कर सकता। यह काम शुद्धनय ही कर सकता है और बिना तत्त्वार्थ का आश्रय लिये जीव को सम्यग्दृष्टि की उपलब्धि संभव नहीं है
ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ रयणसार में रत्नत्रय का विवेचन है। इसमें श्रावक और मुनि के आचार का भी वर्णन है। इसमें सम्यग्दर्शन के ७० गुणों और ४४ दोषों का भी कथन है। श्रुताभ्यास की आवश्यकता और स्वेच्छाचार का निषेध है। कुछ लोग इसके कुन्दकुन्द-कृत होने में संदेह प्रकट करते हैं। द्वादशानुप्रेक्षा की ६१ गाथाओं में अध्र व, अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचिभाव, आस्रव, संवर, निर्जरा और धर्म-इन बारह भावनाओं की व्याख्या है।
ऊपर पाठकों की सुविधा के लिए ग्रन्थों के प्राकृत नामों का संस्कृत रूप दिया गया है। इन ग्रन्थों में सम्यक् दर्शन, शील, चारित्र आदि अर्थात् जीवन की शुद्धता, संयम एवं व्रतों के द्वारा मोक्ष-प्राप्ति के उपायों पर बल है। उनमें स्थान-स्थान पर आवृत्तियाँ और पिष्टपेषण भी मिलेंगे । अनेक स्थानों में नीरसता भी उबा देने की सीमा तक है। फिर भी ग्रन्थकार की लोकोपकार और जीवनपावित्र्य की तीव्र इच्छा सर्वत्र प्रतिबिम्बित है।
कुन्दकुन्द की इस साधनग्रन्थमाला का सुमेरु है—समयसार, जो अपनी गम्भीर सूक्ष्मदृष्टि, मौलिकता एवं प्रतिपादन-शैली के लिए अजैन विद्वानों में भी बहुत समादृत है। समयसार जिसका ग्रन्थकार-प्रदत्त नाम समयपाहुड है, ४१५ गाथाओं में निबद्ध आत्मदर्शन का प्रतिपादक ग्रन्थ है। ग्रन्थकार ने पाहुड शब्द का प्रयोग तत्त्व, सार के तथा समय शब्द का प्रयोग आत्मा के अर्थ में किया है और साथ ही यह भी स्वीकार किया है कि मैं जो कुछ रहा हूं उसमें मेरा कुछ नहीं, मैं तो श्रुतकेवली सिद्धों की बातों को ही दोहरा रहा हूँ—सुयकेवली भणियं । उन्होंने आत्मा के दो भेद किए-स्वसमय और परसमय । सम्यक ज्ञान, दर्शन और चारित्र में स्थित जीव का दूसरा नाम है-स्वसमय और जो पुद्गल से सम्बन्धित कार्यों और परिणामों से आबद्ध हो, वह परसमय कहा जाएगा
जीवो चरित्तदसणणाणद्विदो तंहि समयं जाण ।
पोग्गल कम्मुवदेसट्ठियं चत जाण परसमयं ॥२॥ कुन्दकुन्द की यह गाथा योगदर्शन के तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् का स्मरण दिलाती है । आत्मा वास्तविक रूप में सारी उपाधियों से मुक्त शुद्धरूप है। यही उसका स्वरूप है । जैन और वेदान्ती दोनों ही आत्मा के इस रूप को अनादि काल से स्वीकार करते हैं, जिसका कारण दोनों को ज्ञात नहीं है, आत्मा को अविद्या या उपाधि से आवृत मानते हैं । इस अविद्या से, जो अनिर्वचनीय कारणों से जीव के साथ संपृक्त हो गयी है, मुक्ति पाना ही दोनों की दृष्टि में परम पुरुषार्थ है। शुद्धनय के अनुसार आत्मा सकल बन्धनों से हीन, कार्मिक और अकामिक द्रव्यों से कमलपत्रवत् अस्पृष्ट और इस प्रकार जन्म-मृत्यु से रहित तथा विभिन्न गतियों और स्थितियों में भ्रमण करता हुआ भी 'स्वभावमात्र' रहता है, जैसे-सुवर्ण या मृत्तिका कटक-कुण्डल या घटपटादि आकार ग्रहण करते हुए भी सुवर्ण और मृत्तिका ही रहते हैं। विविध तरंगों से आन्दोलित दिखने पर भी जैसे समुद्र नियत (निश्चल) रहता है, ऐसे ही आत्मा भी नियत अर्थात् अपरिवर्तित और अक्षुब्ध रहता है। ज्ञान, दर्शन आदि मानसिक बौद्धिक विशेषताएं उसमें वैशिष्ट्य उत्पन्न नहीं करतीं। वह अविशेषक है-घट-बढ़-रहित। वह इच्छा, द्वेष, राग, विराग आदि प्रवृत्तियों से सर्वथा मुक्त-असंयुक्त है । कुन्दकुन्द का कथन है कि इस रूप में आत्मा को पहचानना ही शुद्धनय है
जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढें अणण्णयं णियदं ।
अविसेसमजुत्तं तं सुधणयं वियाणीहि ॥१४॥ गीता ने इसे ही आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठम् कहा है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का ज्ञान, दर्शन और चारित्र उस व्यक्ति से पृथक् अपना अस्तित्व नहीं रखता, ऐसे ही ये तीनों जीव से पृथक् अपना अस्तित्व नहीं रखते। वे जीव-रूप ही हैं। निश्चय नय में इस रत्नत्रयी का जीव से तादात्म्य प्रतिपादित किया जाता है, जबकि व्यवहार नय में ये साध्य रूप रहते हैं । कुन्दकुन्द का कथन है कि जैसे राजानुग्रह चाहने वाला व्यक्ति पहले छत्र, चमर तथा परिचरों को देखकर राजा की पहचान करता है और फिर उनकी दया बुद्धि पर विश्वास और आस्था। पश्चात् वह पूरे मनोयोग से उसकी सुश्रूषा करता है, वैसे ही मोक्ष की कामना करने वाले को जीव-राजा की ठीक जानकारी प्राप्त करनी चाहिए (णादव्वो), फिर उस पर श्रद्धा करनी चाहिए (सद्दहेदव्वो) और तब उसकी परिचर्या करनी चाहिए (अणुचरिदब्वो)- (गाथा १७-१८)। यह कथन उपनिषद् के इस वाक्य का स्मरण दिलाता है-आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः।।
परम्परा के अनुसार कुन्दकुन्द ने भी जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष—इन नौ द्रव्यों का विवेचन किया है (गा०१३) और इनके ठीक-ठीक ज्ञान को सम्यक्त्व कहा है। इनमें जीव और अजीव ही प्रमुख हैं तथा शेष सात इन्हीं के परस्पर संसर्ग का परिणाम । कुन्दकुन्द देह और जीव के पार्थक्य के अवगम पर बार-बार जोर देते हैं। वह कहते हैं कि व्यवहारनय में जीव और देह को एक मान लिया जाता है किन्तु वस्तुत: वे दोनों कदापि एक नहीं हो सकते । मुनि लोग भी जीव से सर्वथा भिन्न पुद्गलमय देह की स्तुति कर
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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