________________
की चर्चा है । समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर अमृतचन्द्र सूरि एवं जयसेन की बड़ी विद्वत्तापूर्ण टीकाएँ उपलब्ध हैं । नियमसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष का साधन बतलाते हुए उनके स्वरूप का विवेचन करता है। इसमें १८७ गाथाएँ हैं। इसकी ८१ गाथाओं में आवश्यकों के स्वरूप का विस्तार से कथन किया गया है । ये आवश्यक हैं--प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक एवं परमभक्ति । वह आवश्यक से हीन श्रमण को चारित्र-भ्रष्ट मानते हैं। पुराण-पुरुष यदि केवली हुए हैं तो आवश्यकों के अनुष्ठान से ही। अन्त में मोक्ष के स्वरूप पर भी विचार किया गया है। कुन्दकुन्द योग-भक्ति को आवश्यक क्रिया का अंग मानते हैं। उनके अनुसार ऋषभ आदि जिनेन्द्र योग-भक्ति के द्वारा ही निर्वाण के अधिकारी बने। इसी दृष्टि से उन्होंने पृथक-पृथक रूप से दस भक्तियों की रचना की। ये भक्ति-रचनाएँ ७ से लेकर २७ तक गाथाओं में उपलब्ध हैं और स्तवन-वन्दनपरक एवं भावनात्मक हैं। सूत्रपाहुड में बतलाया गया है कि सूत्र को पकड़ कर चलने वाला ही पारमार्थ्य को प्राप्त करता है । सूत्र वे हैं जिनके अर्थ का उपदेश तीर्थकर ने और ग्रन्थ-रचना गणधरों ने की है। सूत्रपाहुड से पता चलता है कि कुन्दकुन्द के समय में जिनागमसूत्र वर्तमान थे। इस ग्रन्थ में उन्होंने मुनि-नग्नत्व का निरूपण और स्त्रियों की प्रव्रज्या का निषेध किया है। संभव है यह तत्कालीन बौद्ध भिक्षुओं के पतन से जन्य प्रतिक्रिया का परिणाम हो जो धीरे-धीरे परिग्रही बन गये थे। इससे श्वेताम्बर और दिगम्बर प्रविभागों के न केवल अस्तित्व, अपितु उनकी परस्पर-स्पर्धा का भी पता चलता है। चारित्रपाइड की ४४ गाथाओं में ज्ञान और दर्शन के मेल से उत्पन्न सम्यक्चारित्र है। सम्यक्त्व चारित्र और संयम चारित्र के साथ, सम्यक्त्व के आठ अंगों और संयम के सागार-अनगार भेदों तथा उनके धर्मों यथा--अणु-गुण और शिक्षाव्रतों, पंचेन्द्रिय संवरों, पच्चीस क्रियाओं के साथ पांच व्रतों, पांच समितियों और तीन गुप्तियों का निरूपण इस पाहुड में है। ६२ गाथाओं वाले बोधपाहुड में आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा, बिम्ब, मुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हत् और प्रव्रज्या इन ग्यारह के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या है। भावपाहुड का कलेवर कुछ बड़ा है। इसमें १६५ गाथाएँ हैं। इसमें चित्त-शुद्धि की महत्ता का वर्णन है। इसमें द्रव्यलिंगी और भावलिंगी श्रमणों में भेद करते हुए यह बतलाया है कि बिना परिणामों में शुद्धि आये, राग-द्वेष आदि कषायों के छूटे और आत्म-रमण की स्थिति में पहुंचे आत्म-कल्याण संभव नहीं । तदर्थ लेखक ने अनेक सिद्ध और प्रसिद्ध मुनियों के उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं। इस पाहुड का साहित्यिक मूल्य अन्य पाहुडों की अपेक्षा अधिक है। लिंगपाहुड की २२ गाथाओं में उन प्रवृत्तियों की निन्दा की गयी है जो मुनि के पतन का कारण बनती हैं। यह पाहुड सामयिक परिस्थितियों का अच्छा चित्र भी प्रस्तुत करता है। भावनिष्ठ श्रमणों को 'पासत्थ' से भी निकृष्ट बतलाते हुए उन्हें तिर्यञ्चयोनिगामी कहा है। शीलपाइड में ४४ गाथाएँ हैं जिनमें शील को धर्मसाधना का प्रमुख अंग बतलाया है। व्याकरण, छन्द, वैशेषिक, व्यवहार और न्याय-शास्त्र ये सब तभी सार्थक हैं जब उनके साथ शील भी हो। दर्शनपाहुड की २६ गाथाओं में सम्यग्दर्शन को निर्वाण के लिए अनिवार्य बतलाया गया है और मोक्खपाहड की १०६ गाथाओं में मोक्ष के स्वरूप का वर्णन है। बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा--इन तीन आत्मरूपों के साथ मोक्ष के उपायों की व्याख्या इस पाहुड में है। प्रश्न उठता है कि यदि आत्मा सारी उपाधियों से रहित शुद्ध-स्वभाव है तो ज्ञान, दर्शन और चारित्र से उसका क्या सम्बन्ध ? उत्तर में कुन्दकुन्द कहते हैं
ववहारेणु वदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं ।
णवि णाणं ण चरित्तण सणं जाणगो सुद्धो॥७॥ ज्ञापक आत्मा शुद्ध है फिर भी व्यवहार-दृष्ट्या हम उसके चरित्र, दर्शन और ज्ञान का उपदेश करते हैं । शंकराचार्य ने पारमाथिकी सत्ता से पृथक् व्यावहारिकी सत्ता को स्वीकार किया है। विशुद्ध मुक्त-स्थिति का शब्दों में वर्णन करना कठिन होता है क्योंकि वह शब्दातीत स्थिति होती है । इसीलिए विश्व के प्रायः सभी प्राचीन चिन्तकों ने रूपकों के द्वारा इस स्थिति का चित्रण किया है। कुन्दकुन्द इसके लिये तर्क देते हैं
जह णवि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणाउ गाहेदं ।
तह ववहारेण विणा परमत्थु वदेसणमसक्कं ॥८॥ जैसे-विदेशी व्यक्ति यदि हमारी भाषा को नहीं समझता तो हम उसे उसी की भाषा में अपनी बात समझा देते हैं, इस तरह वह हमारी बात समझ लेता है। यही स्थिति सामान्यजनों की है जो निश्चय-नय को समझने में अक्षम होते हैं, उनके लिए व्यवहार-नय का आश्रय लेना श्रुतकेवली को विवशता है । कुन्दकुन्द जानते थे कि सामाजिक जीवन में व्यवहारनय को अस्वीकृत करना शक्य नहीं है। हर व्यक्ति की पहुंच तत्त्व की गहन पर्यायों तक सम्भव नहीं, कुछ स्थूल पर्यायों तक ही उसकी गति हो सकती है । भगवान् महावीर ने मोक्ष के जो चार मार्ग बतलाये थेज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप--उनमें कुन्दकुन्द ने प्रथम तीन पर अधिक बल दिया। तप का अन्तर्भाव चारित्र में हो जाता है। व्यवहारनय को स्वीकार करते हुए भी प्राय: उनकी व्याख्याएँ और स्थापनाएँ निश्चयनय पर आधारित हैं क्योंकि निश्चयनय का दृष्टिकोण ही सूक्ष्म और आत्मगम्य है। इसीलिए दर्शन के क्षेत्र में कुन्दकुन्द निश्चयनय के प्रवक्ता माने जाते हैं। उन्होंने कहा ही है
दसणणाणचरित्तानि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिणि वि अप्पाणं चैव णिच्छयदो ॥१६॥
जैन दर्शन मीमांसा
१४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org