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रहकर इसी से तृप्ति पाओ । सर्वोत्तम सुख का प्रकार यही है:
एदम्हि रदोणिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चभेदम्हि ।
एदेण होहि तित्तो तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं ॥ ऐसा ज्ञानवान् जीव सारे द्रव्यों और कर्मों के मध्य रहता हुआ भी अनासक्त भाव के कारण कर्म में लिप्त नहीं होता, जैसे कीचड़ में पड़कर भी सुवर्ण उसमें नहीं सनता जबकि लोहे के समान अज्ञानी उसमें फंसकर जंग खा जाता है। जैसे-जीवित, अजीवित और विविध प्रकार की मिश्र वस्तुओं को खाकर और पचाकर भी शंख-कीट का रंग सफेद ही रहता है, काला नहीं पड़ता, ऐसे ही ज्ञानी सचित्त (जीवित),अचित्त और मिश्र द्रव्यों का उपभोग करके भी अपना-ज्ञानस्वरूप नहीं छोड़ता (२२०-२१)। सम्यग्दृष्टि जीव विविध विचारों, वाणी और कर्मों में प्रवृत्त होकर भी कर्मबन्ध में नहीं पड़ता क्योंकि वह इन सबको अनासक्त भाव से करता है, जैसे-----कोई पुरुष शरीर में तेल का अभ्यंजन करके यदि धूल-भरे स्थान में भी व्यायाम करे तो उस पर धूल नहीं चढ़ती (२४२-४६) । जो यह समझता है कि मैं मारता हूं या किसी के द्वारा मारा जाऊंगा, वह मूढ़ है, अज्ञानी है
जो मण्णदि हिंसामि य हिसिज्जामि व परेहि सहि।
सो मूढो अण्णाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२४७॥ देखिये गीता--
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥ आचार्य कुन्दकुन्द ने उपर्युक्त सत्य को विविध सरल व्यावहारिक उदाहरणों के द्वारा समझाया है और वह भी बहुत विस्तार के साथ । उन्होंने उन सारे खतरों और जोखिमों के प्रति साधक को सावधान भी किया है जिनमें सामान्यत: जीव पड़ जाता है। वह कहते हैं
सत्यं णाणं ण हवइ जम्हा सत्थं णयाणए किचि ।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा विति ॥३६०॥ शास्त्र ज्ञान का पर्याय नहीं है क्योंकि शास्त्र स्वयं कुछ नहीं जानता। इसीलिए जिन बतलाते हैं कि शास्त्र भिन्न है और ज्ञान भिन्न, किन्तु ज्ञान और ज्ञाता दोनों परस्पर अभिन्न हैं-णाणं च जायणादो अव्वदिरित्तंमुणेयवं ॥४०३। उन्होंने बाहरी दिखावों और चिह्नों में न फंसने का परामर्श दिया है । संभवतः उनके समय में भी आज के समान कुछ धर्मध्वजी लोग वेष और लिंगों के आधार पर लोगों को बरगलाते रहे होंगे। वे कहते हैं
पासंडियलिगाणिव गिह लिगानि व बहुप्पयाराणि । जिंतुं वदन्ति मूढालिगमिणं भोक्ख मग्गोत्ति ॥४०८॥ णविएस मोक्खमग्गो पासंडी गिहमयाणि लिंगाणि ।
दसण-णाण-चरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥४१०॥ ये बाहरी चिह्न (तिलक, छाप, माला, काषायवस्त्र, श्वेतवस्त्र या दिगम्बरत्व) मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष का साधन है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् आचरण और अन्त में वह यह कहकर ग्रन्थ की समाप्ति करते हैं
मीक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चैव झाहि तं चेव ।
तत्थेव विहर णिच्चं मा विहरसु अण्णदब्वेसु ॥४१२॥ स्वयं को मोक्ष-मार्ग में प्रतिष्ठित करो, उसी का, केवल उसी का ध्यान करो। मोक्षमार्ग में ही विहरण करो, अन्य द्रव्यों में विहार मत करो।
इस प्रकार समयसार में कुन्दकुन्द का प्रमुख प्रतिपाद्य है आत्मा और उसका ज्ञान अर्थात् मोक्ष । उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र का पहला सूत्र भी यही है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः। इन्हीं तीन का नाम रत्नत्रय है जो बौद्धों के रत्नत्रय (बुद्ध, धम्म और संघ) से सर्वथा भिन्न है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् अर्थात् तत्त्वार्थ पर आस्था को सम्यग्दर्शन कहा है । तत्त्वार्थ या वस्तुसत्य सात हैं—जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । जीव चेतन और अजीव जड़ पदार्थ है। जीव में कर्म-प्रसृति का संमिश्रण आस्रव है । बन्ध कामिक द्रव्य के संपर्क के कारण उत्पन्न अज्ञान, संवर कर्म प्रवाह की निरोधक क्रिया, निर्जरा कर्मप्रवाह और परिणामों की नाशक और मोक्ष कार्मिक उपाधियों से सर्वथा मुक्ति का नाम है। तत्त्व या सत् पदार्थ की परिभाषा जैन दर्शन में अन्य दर्शनों से कुछ भिन्न है। जैन विचारक स्थायी, अनश्वर या ध्रुव पदार्थ को नहीं, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् यह सत् की परिभाषा मानते हैं। रूपाकार-परिवर्तन-सह होकर भी जो ध्रुव हो, वह सत् है। यह वेदान्तियों के अपरिवत्तित्ववत् सत् और बौद्धों के क्षणिकत्व सत् से अधिक वैज्ञानिक है। परिवर्तनशीलता के रहते हुए भी ध्रौव्य की सत्सम्बन्धी कल्पना ने द्रव्य के प्रति भी नयी दृष्टि दी है। जैनों के अनुसार
जैन दर्शन मीमांसा
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