________________
व्यक्तियों ने उन्हें पूछा--यहां भीतर कौन है ? भगवान् ने उत्तर दिया-मैं भिक्षु हूं।'
उसके कहने पर भगवान महावीर वहां से चले गये। श्रमण का यही उत्तम धर्म है। फिर मौन होकर ध्यान में लीन हो गए।
सूत्रकृतांग में भगवान् महावीर को अनुत्तर सर्वश्रेष्ठ ध्यान के आराधक कहा गया है तथा उनके ध्यान को हंस, फेन, शंख और इन्दु के समान परमशुक्ल-अत्यन्त उज्ज्वल बतलाया है।'
भगवतीसूत्र का प्रसंग है। भगवान् महावीर गौतम से कहते हैं----'मैं छद्मस्थ अवस्था में था, तब ग्यारह वर्ष का साधु-पर्याय पालता हुआ, निरन्तर दो-दो दिन के (बेले-बेले) उपवास करता हुआ, तप व संयम से आत्मा को भावित करता हुआ, ग्रामानुग्राम विहरण करता हुआ सुंसुमार नगर पहुंचा। वहां अशोक वनखण्ड नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी पर स्थित शिलापट्ट के पास आया, वहां स्थित हुआ और तीन दिन का उपवास स्वीकार किया। दोनों पैर संहृत किये-सिकोड़े, आसनस्थ हुआ। भुजाओं को लम्बा किया-फैलाया, एक पुद्गल पर दृष्टि स्थापित की, नेत्रों को अनिमेष रखा, देह को थोड़ा झुकाया, अंगो कों-इन्द्रियों को यथावत् आत्मकेन्द्रित रखा । एक रात्रि की महाप्रतिमा स्वीकार की। यह क्रम आगे बिहार-चर्या में चालू रखा।
भगवान् के तपश्चरण का यह प्रसंग उनके ध्यान तथा मुद्रा, अवस्थिति, आसन आदि पर इंगित करता है। इसके आधार पर यह स्पष्ट है कि उनके ध्यान का अपना कोई विशेष क्रम अवश्य था, यद्यपि उसका विस्तृत वर्णन जैन-आगमों में हमें प्राप्त नहीं होता।
जैन-परम्परा की जैसी स्थिति आज है, भगवान के समय में सम्भवतः सर्वथा वैसी नहीं थी। आज अनशन, लम्बे उपवास आदि पर जितना जोर दिया जाता है, उसकी तुलना में मानसिक एकाग्रता चित्तवृत्तियों का नियन्त्रण, सम्मान, ध्यान, समाधि आदि थोड़े गौण हो गये हैं। परिणामतः ध्यान सम्बन्धी अनेक तथ्यों तथा पद्धतियों का लोप हो गया है।
आगम-साहित्य में ध्यान आदि का कहीं संक्षेप में कहीं विस्तार से अनेक स्थानों पर विश्लेषण हुआ है। स्थानांगसूत्र में ध्यान का संक्षेप में विवेचन हुआ है।वहां आर्त, रौद्र, धर्म तथा शुक्ल के रूप में ध्यान के चार भेद बतलाए हैं। फिर उनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद, उनके लक्षण, आलम्बन तथा अनुप्रेक्षाओं की चर्चा है।'
इसी प्रकार औपपातिकसूत्र में भी ध्यान का वर्णन हुआ है। समवायांग में नामरूप में संकेत हैं।
भगवान् महावीर की साधना के सन्दर्भ में ध्यान के जो प्रसंग प्राप्त होते हैं, उनमें उन द्वारा अनेक आसनों में ध्यान किये जाने का उल्लेख है।
औपपातिकसूत्र में जहां भगवान् महावीर के अन्तेवासी श्रमणों के तपोमय जीवन का वर्णन है, वहां एक स्थान पर उल्लेख है'उन (श्रमणों) में कई अपने दोनों घुटनों को ऊंचा किए, मस्तक को नीचा किए, एक विशेष आसन में अवस्थित हो ध्यानरूप कोष्ठ में कोठे में प्रविष्ट थे, ध्यान में संलग्न थे।
औपपातिकसूत्र के इसी प्रसंग में काय-क्लेश के विश्लेषण के अन्तर्गत आसनों की चर्चा है । दशाश्रुतस्कन्धसूत्र की सातवीं दशा में भिक्ष-प्रतिमाओं के वर्णन में विभिन्न आसनों में ध्यान करने का उल्लेख है।
आगम संबद्ध उत्तरवर्ती साहित्य में योग सम्बन्धी विषयों की चर्चा होती रही है। ओधनियुक्तिभाष्य में स्थान या आसन के तीन प्रकार बतलाये गये हैं-(१) ऊर्ध्व-स्थान, (२) निषीदन-स्थान एवं (३) शयन-स्थान ।
खड़े होकर किए जाने वाले स्थान-आसन उर्ध्व-स्थान कहे गये हैं। उनके साधारण सविचार, सन्निरुद्ध, व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद तथा गृध्रोड्डीन-ये सात भेद हैं।
१. 'आयमंतरसि को एत्थ, अहमंसित्ति भिक्खू आहट्ट ।
अयमुत्तमे से धम्मे, तुसिणीए स कसाइए झाति ॥', आचारांग, ६/२/१२ २. 'अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता अणुत्तर झाणवर झियाइ।
सुसुक्कसुक्क अपगंडसुक्क, सखि दुएगंतवदातसुक्कं ॥', वही, १/६/१६ ३. 'तेणं कालेणं समएणं अहं गोयमा । छउमत्थका लियाए एक्कारसकसरियाए छ8 छठेणं अणिविखत्तेणं तवाकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुवाणुषुवि
चरमाणे गामाणु गाम दुइज्जमाणे जेणेव सुसुमारनगरे जेणेव असोयसंडे उज्जाणे जेणेव असोयवरपायवे पुढवी सिलावट्टाए, तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढबीसिला वट्टयंसि अट्टमभत्तं पगिण्हामि, दो विपाये सहटु, वग्धारिय पाणी, एगमोग्गलनिविट्ठविट्ठी अणिमिसणवणे, ईसिपब्भारगएणं काएग', अहापणिहिएहिं गतेहि, सविदिएहिं गत्तेहिं एगराइयं महापडिमं उवसंपज्जत्ता णं विहरामि ।' ४. स्थानांगसूत्र, ४/१/६०-७२ ५. औपपातिकसूत्र, ३० ६. समवायांगसूत्र, ४२ ७. 'अप्पेगइया उड्ढजाणु अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति', औपपातिकसूत्र, ३१ १४२
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org