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द्वारा (नाव में आये हुए पानी की तरह) कर्म अलग हो जाते हैं। प्रत्येक जीव का लक्ष्य दुःख से निवृत्ति की ओर जाना है। इन कर्मों का अभाव हो जाने पर आनन्द का एक ही स्रोत रह जाता है जिसे मोक्ष (निर्वाण) कहते हैं।
तत्व क्रम--सर्वप्रथम जीव को ही क्यों स्थान दिया ? जीव ही ज्ञान-दर्शन है, कर्मों का भोक्ता, शुभ-अशुभ को भोगने वाला है। यदि जीव न हो तो पुद्गल का उपयोग नहीं हो सकता, जीव की गति, स्थिति एवं अवगाह में पुद्गल ही सहकारी है, अतः अजीव आवश्यक हुआ । जीव-पुद्गल के संयोग से ही संसार है । संसार के कारण आस्रव-बन्ध हैं। संवर और निर्जरा मोक्ष के कारण हैं । अतः तत्त्वों का उक्त क्रम से वर्णन किया है। यही क्रम संयोग-वियोग और आध्यात्मिक दृष्टि से भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
कुशाग्र बुद्धि वाला इन जीव-अजीव तत्वों के आधार पर अपना गन्तव्य-पथ प्राप्त कर लेता है क्योंकि वह समझता है कि जीव ही ज्ञानचेतनामय है और ज्ञान आत्म-गुण से युक्त है। जो आत्म-स्वरूप को जानता है वह सबकुछ जानता है। आत्म-स्वरूप ही परमात्मरूप है दूसरी ओर मन्दबुद्धि वाला जब तक संयोग-वियोग अर्थात् कर्म के कारणों को तथा मोक्ष के कारणों को नहीं समझ लेगा, तब तक बह गन्तव्यपथ प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकता। आस्रव-बन्ध, शुभाशुभ, पुण्य-पाप के संयोग रूप कारण संसार में परिभ्रमण कराने वाले हैं और संवर, निर्जरा और मोक्ष वियोग-रूप-कारण आनन्दस्वरूप मुक्ति-पथ की ओर ले जाने वाले हैं। इस तरह जीव-अजीव रूप समास शैली और आस्रव, बन्ध (पुण्य-पाप), संवर, निर्जरा रूप व्यास शैली का प्रयोग किया गया है। इससे जिज्ञासु भली-भांति इन तत्वों को समझकर मुक्ति-पथ को प्राप्त कर सकते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि से भी जीव-अजीव तत्व ज्ञेय हैं । साधक (मुक्ति पथ की खोज करने वाले) के लिए इन दोनों तत्वों का ज्ञान आवश्यक है क्योंकि ये शेय-स्वरूप हैं अर्थात् ज्ञान द्वारा जाने जाते हैं । आस्रव और बंध संसार के कारण होने से हेय (छोड़ने योग्य), संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय (ग्रहण करने योग्य) तत्व हैं । सात तत्वों में जीव-अजीव (धर्म, अधर्म, आकाश और काल) द्रव्यों में जीव अरूपी है तथा पुद्गल रूपी है, क्योंकि रूप, रस, गन्ध, वर्णये पुद्गल के स्वरूप हैं। द्रव्य-दृष्टि से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश—ये पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं और कालद्रव्य अस्तिकाय नहीं है, क्योंकि कालद्रव्य प्रदेश-समूह नहीं है ।
आत्मा और ब्रह्म ---भारतीय दार्शनिक आत्मा को किसी न किसी रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं। न्याय-वैशेषिक आत्मा को नित्य मानता है और इसे ज्ञाता, कर्ता और भोक्ता स्वीकार करता है । वह ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण भी मानता है । जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का सहज गुण मानता है । न्याय-वैशेषिक के अनुसार जब आत्मा का मन और शरीर से संयोग होता है, तभी उसमें चैतन्य की उत्पत्ति होती है। मीमांसा दर्शन का मत भी यही है । वह भी चैतन्य और ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक गुण मानता है। सुख-दुःख का अत्यन्त विनाश होने पर आत्मा अपनी स्वाभाविक मोक्ष अवस्था को प्राप्त कर लेता है, इस समय आत्मा चैतन्यरहित हो जाता है। सांख्य-योग चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं मानता। पर इनका आत्मा (पुरुष) अकर्ता है, वह सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित है। प्रकृति अपने आपको तदाकार करने के कारण सुख-दुःख रूप और सतत क्रियाशील है, जबकि पुरुष शुद्ध-चैतन्य और ज्ञान स्वरूप है। वेदान्त दर्शन आत्मा को ही सत्य मानता है, जो सत्-चित्-आनंद स्वरूप है । अवैदिक दर्शनों में चार्वाक आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता है, वह तो केवल चैतन्य-युक्त शरीर को ही सबकुछ मानता है। बौद्ध अनात्मवादी है, वह आत्मा को अनित्य मानता है। शून्यवादी विज्ञानवादी का कहना है कि आत्मा क्षणिक है, विज्ञान-सन्तानमात्र है जो क्षण-क्षण में जल के बबूले की तरह परिवर्तनशील है। लेकिन जैन दर्शन आत्मा को नित्य मानता है। यह अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त है। जब तक यह बाह्य क्रियाओं के प्रति लगा रहता है तब तक उसके ये गुण आच्छादित ही रहते हैं और जब कर्मों का आवरण हट जाता है तब वही आत्मा इन गुणों से युक्त होकर परमात्मरूप को प्राप्त कर लेता है। आत्मा की उत्कृष्ट अवस्था को ही जैन दर्शन में परमात्मा कहा है।
आदिपुराणकार ने आत्मा को ज्ञानयुक्त कहा है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है, आगन्तुक गुण नहीं है। तत्वज्ञ पुरुष उन्हीं तत्वों को मानते हैं जो सर्वज्ञ देव के द्वारा कहे हुए हों।
आचार्य जिनसेन अन्य भारतीय दर्शनों के समान ब्रह्मतत्व को भी स्वीकार करते हैं। पर वे इसे वेदान्त की तरह सबकुछ नहीं मानते। अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पंचपरमेष्ठियों को पंचब्रह्मस्वरूप मानते हैं। जो योगिजन परमतत्व परमात्मा का बार-बार ध्यान करते हैं, वे ब्रह्मतत्व को जान लेते हैं। इससे आत्मा में जो परम आनन्द होता है, वही जीव का सबसे बड़ा ऐश्वर्य है।
आदिपुराण के अनुसार आत्मा ही ब्रह्मतत्व रूप है, प्रत्येक आत्मा ब्रह्मतत्व रूप है। इस ब्रह्मतत्व की शक्ति की अभिव्यक्ति का नाम परमात्मा या परमब्रह्म है। यह परमब्रह्म ही ऐश्वर्य गुणों से युक्त होने के कारण ईश्वर कहा जा सकता है, पर यह ईश्वर जगत्कर्ता
१. आदिपुराण, ५/६८ २. आदिपुराण, ५/८५
जैन दर्शन मीमांसा
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