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मध्यमा-यह वैखरी की अपेक्षा सूक्ष्म होती है। इसका व्यापार अन्तरंग होता है। प्राणवायु का अतिक्रमण कर अन्तरंगजल्परूप जो वाक् है, वह मध्यमावाक् कहलाती है। मध्यमा वाणी उस अवस्था में होती है, जब वक्ता के शब्द बोलने के पहले भीतर ही होते हैं।' चिन्तन करना मध्यमा का कार्य है। श्रु त में प्रविष्ट होकर उसका विषय बनने वाली वाक् मध्यमावाक् का स्वरूप है।
पश्यन्ती-यह मध्यमा से सूक्ष्म होती है। भर्त हरि ने पश्यन्ती को सूक्ष्मतम बतलाया है। उन्होंने कहा है कि पश्यन्ती वर्ण, पद आदि क्रम से रहित (प्रतिसंहृत), अविभागरूप, चला (क्योंकि शब्दाभिव्यक्ति में गति है), अचला (क्योंकि अपने विशुद्धरूप में निःस्पंद रहती है), स्वप्रकाश तथा संविद्रूप होती है। भर्तहरि ने इसे परब्रह्मस्वरूपिणी कहा है। यह अक्षर, शब्द, ब्रह्म और परावाक् भी कहलाती है।
पश्यन्ती में वाच्य-वाचक का विभाग प्रतीत नहीं होता। इसके अनेक भेद होते हैं, जैसे-परिच्छिन्नार्थप्रत्यवभास, संसृष्टार्थप्रत्यवभास और प्रशान्तसर्वार्थप्रत्यवभास ।
सूक्ष्मा (परावाक)----नागेश आदि नव्य-वैयाकरणों ने सूक्ष्मा को ज्योतिस्वरूपा, शाश्वती, व्यापका, दुर्लक्ष्या और काल के भेद से स्पर्शरहित बतलाया है। यह सबके अन्तरंग में प्रकाशित होती है। सूक्ष्मवाणी में सम्पूर्ण जगत् व्याप्त होने से संसार शब्दमय कहलाता है। सूक्ष्मा सम्पूर्ण ज्ञानों में व्याप्त रहती है। इसके बिना पश्यन्ती नही हो सकती, पश्यन्ती के बिना मध्यमा और मध्यमा के बिना वैखरी वाणी नहीं हो सकती। इसलिए सूक्ष्मा सभी वाणियों की आद्य-जननी कहलाती है। सम्पूर्ण संसार इसी का विवर्तमात्र है।
शब्दब्रह्म का स्वरूप
भत हरि ने वाक्यपदीय में शब्दब्रह्म का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए निम्नांकित विशेषण दिये हैं
(क) शब्दब्रहम अनादिनिधन है— शब्दब्रह्म की पहली विशेषता यह है कि वह उत्पत्ति और विनाश से रहित है। जिसकी न कभी उत्पत्ति होती है और न विनाश, वह अनादिनिधन कहलाता है। शब्दब्रह्म उत्पत्ति एवं विनाश रहित है । इसलिए उसे अनादिनिधन कहा गया है।
(ख) शब्दब्रह्म अक्षररूप है-शब्दब्रह्म अक्षररूप है, क्योंकि उसका क्षरण अर्थात् विनाश नहीं होता। दूसरे शब्दों में शब्दब्रह्म कूटस्थ नित्य है। दूसरी बात यह है कि अकारादि अक्षर कहलाते हैं । शब्दब्रह्म इन अकारादि अक्षरों का निमित्त-कारण है, इसलिए वह अक्षररूप कहा गया है । अकारादि अक्षरों की उत्पत्ति शब्दब्रह्म के बिना नहीं हो सकती। शब्दब्रह्म के अक्षररूप से यह भी सिद्ध होता है कि वह वाचकरूप है।
(ग) शब्दब्रह्म अर्थरूप से परिणमन करता है--शब्दाद्वैतवादियों ने शब्दब्रह्म का स्वरूप बताते हुए यह भी कहा है कि वह अर्थरूप से विवर्तित होता है । अर्थात्, घट-पटादि जितने भी पदार्थ हैं, वे सब उसी शब्दब्रह्म की पर्याय हैं। घटादि पदार्थों का कारण शब्दब्रह्म है, जो घटादि रूप से प्रतीत होने लगता है। इससे सिद्ध है कि शब्दब्रह्म 'वाच्य' भी है।
(घ) शब्दब्रह्म जगत् की प्रक्रिया है-घट-पटादि भेद-प्रभेद रूप जो यह दृश्यमान् जगत् है, वह शब्दब्रह्ममय है। अर्थात्, शब्दब्रह्म से भिन्न जगत् की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । क्योंकि, सम्पूर्ण पदार्थ शब्दब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं।
१. 'प्राणवृत्तिमतिक्रम्य मध्यमा-वाक् प्रवर्तते।' २. 'अविभागाऽनुगा तु पश्यन्ती सर्वतः संहृतक्रमा'
और भी द्रष्टव्य, स्या० २०, पृ०६० ३. 'संविच्च पश्यन्तीरूपा परावाक् शब्दब्रह्ममयीति ब्रह्मतत्त्वं शब्दात् पारमाथिकान्न भिद्यते, विवर्तदशायां तु वैखर्यात्मनाभेदः ।,
हेलाराज : वाक्यपदीप, ३/११, उद्धत बलदेव उपाध्याय, भा० द०, ५० ६४० ४. 'स्वरूपज्योतिरेवान्तः सूक्ष्मा-वागनपायिनी । तया व्याप्तं जगत्सर्व ततः शब्दात्मकं जगत् ।।'
और भी देखें : स्या० र०, पृ०६० ५. तत्वार्थश्लोकबार्तिक, १/३, श्लोक ६३-६४, पृ०२४० ६. (क) अनादिनिधनं ब्रह्मशब्दतत्वं यदक्षरम् ।।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रियाजगतो यतः ॥', भर्तृहरि : विाक्यपदीय, १/१ (ख) प्रभाचन्द्र : प्र० क० मा०, १/३, पृ० ३६ (ग) वादिदेव मूरि : स्याद्वादरत्नाकर, १/७, पृ० ६० (घ) 'नाशोत्पादासमालीढं ब्रह्मशब्दमयं परम् ।
यत्तस्य परिणामोऽयं भावग्राम: प्रतीयते ॥', शान्तरक्षित : तत्वसंग्रह, का० १२८
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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