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अविद्या के अवस्तु होने पर एक दोष यह भी आता है कि दृष्टान्त और दार्टान्त में समानता नहीं रहती, क्योंकि आकाश में असत् (मिथ्या) प्रतिभास का कारणभूत अंधकार (तिमिर) वस्तुरूप है और अविद्या अवस्तुरूप । जब अविद्या अवस्तु है, तो वह विचित्र प्रतिभास का कारण कैसे बन सकती है। एक स्वभाव वाली दो वस्तुओं में दृष्टान्त और दार्टान्त बन सकता है। वास्तविक और अवास्तविक पदार्थों में दृष्टान्त और दार्टान्त नहीं बन सकता।
__ अतः शब्दाद्वैतवादियों का यह कथन भी ठीक नहीं है कि जिस प्रकार तिमिर से उपहत जन विशुद्ध-आकाश को नाना प्रकार की रेखाओं से व्याप्त मान लेता है, उसी प्रकार यह अनादि-निधन-शब्दब्रह्म निर्मल और निविकार है, किन्तु अविद्या के कारण (अविद्यारूपी तिमिर से उपहत नर) उसे घट-पटादि कार्य के भेद से प्रादुर्भाव और विनाश वाला अर्थात् भेद रूप में देखता है।'
शब्दब्रह्म से भिन्न अवस्तुस्वरूप अविद्या के वशीभूत होकर नित्य, अनाधेय और अतिशय रूप शब्दब्रह्म भेद रूप से प्रतिभासित होता है, यह कथन भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि अवस्तु के वशीभूत होकर वस्तु अन्य रूप नहीं हो सकती। प्रभाचन्द्र, अभयदेव और वादिदेव की भांति 'तत्वसंग्रह' के टीकाकार कमलशील ने भी यही कहा है। इस प्रकार अविद्या को अवस्तु मानना न्यायसंगत नहीं है।
शब्द-ब्रह्म से भिन्न अविद्या को वस्तु मानना भी अतर्कसंगत है-उपर्युक्त दोषों के कारण शब्द-ब्रह्मवादियों का यह अभिमत कि अविद्या वस्तुरूप है, तर्कशील नहीं है ? क्योंकि अविद्या को वस्तु मानने पर शब्दाद्वैतमत में निम्नांकित दोष आते हैं -
१. पहला दोष यह आता है कि स्वीकृत सिद्धान्त का विनाश हो जायेगा, क्योंकि अविद्या और ब्रह्म दो की सत्ता सिद्ध हो जायेगी।
२. दूसरा दोष यह है कि शब्द-ब्रह्म की भांति अविद्या भी वस्तुरूप है, अतः दो तत्वों के सिद्ध हो जाने से द्वैत की सिद्धि और अद्वैत का अभाव हो जायेगा। अतः अविद्या को ब्रह्म से भिन्न मानना ठीक नहीं है।
अविद्या को शब्द-ब्रह्म से अभिन्न मानने में दोष-अविद्या शब्दब्रह्म से भिन्न नहीं है, यह सिद्ध हो जाने पर शब्दाद्वैतवादी उसे शब्द-ब्रह्म से अभिन्न नहीं मान सकते; क्योंकि ऐसा मानने से या तो अविद्या की तरह ब्रह्म असत्य हो जायेगा या ब्रह्म की तरह अविद्या सत्य हो जायेगी।
उपर्युक्त दोनों विकल्प युक्तियुक्त नहीं हैं, क्योंकि अविद्या की तरह ब्रह्म के मिथ्यात्व रूप हो जाने से शब्दाद्वैतवाद में कोई तत्व पारमार्थिक सिद्ध नहीं हो सकेगा। अतः यदि ब्रह्म की भांति अविद्या शब्द-ब्रह्म से अभिन्न होने के कारण सत्य रूप मान ली जाय तो अविद्या मिथ्याप्रतीति का कारण कैसे मानी जा सकती है ? क्योंकि यह अनुमान प्रमाण से सिद्ध है कि जो सत्य रूप होता है, वह मिथ्याप्रतीति का हेतु नहीं होता, जैसे--ब्रह्म से अभिन्न अविद्या भी सत्य होने से मिथ्याप्रतीति का कारण नहीं हो सकती। अतः अविद्या को शब्दब्रह्म से अभिन्न मानना भी ठीक नहीं है।
यहां एक बात यह भी है कि घोड़े के सींग की तरह अविद्या अवस्तु अर्थात् असत् होने से शब्दब्रह्म से बलशाली नहीं है । जो बलशाली होता है, वही निर्बल के स्वभाव को ढक लेता है । न कि निर्बल बलशाली के स्वभाव को, जैसे - सूर्य तारों के स्वभाव का अभिभव कर देता है। इस अनुमान से सिद्ध है कि अविचारणीय स्वभाव वाली अविद्या से शब्दब्रह्म का स्वभाव अभिभव नहीं हो सकता।
एवंविध सिद्ध होता है कि शब्दब्रह्म के असत्य होने से अयोग्यावस्था में आत्मज्योतिस्वरूप शब्दब्रह्म अप्रकाशित रहता है, अविद्या के अभिभूत होने से नहीं । अयोग्यदशा में शब्दब्रह्म के असत् सिद्ध होने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि योग्यावस्था में उसका अस्तित्व नहीं
१. (क) प्रभाचन्द्र : प्र. क. मा०, १३, पृ० ४५ (ख) प्रभाचन्द्र : न्या० कु. च०, १५, प.०१४३
(ग) वादिदेवसूरि : स्या० र०, १५, पृ० ६६ २. 'न चाऽनाधेयाऽप्रया तिशयस्य ब्रह्मणः तद्वशात् तथाप्रतिभासो मुक्तोऽतिप्रसङ्गात । नाप्यवस्तुवशाद्वस्तुनोऽन्यथाभावो भवति, अतिप्रसङ्गाच्च ।',
प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, पृ० १४३ ३. 'न च. 'ब्रह्मणि तस्या अकिञ्चित्करत्वात ...', सन्मतितर्कप्र० टीका, त तीय विभाग, पृ० ३६५ ४. 'न"शब्दब्रह्मणोऽविद्यामामाभेदेन प्रतिभासो ज्यायान् । अतिप्रसक्ते"।', स्या० र०, पृ० ६६-१०० ५. 'अथ "ब्रह्मणः सा न किञ्चित् करोतीति न युक्तविद्यावशात तथा प्रतिभासनम् ।', त० सं० पञ्जिका, का० १५१, प० ६५ ६. (क) 'अथ वस्तु; तन्न; अभ्य पगमक्षतिप्रसक्ते:1', न्या० कु० च०,१५, प०१४३
(ख) स्या० २०, १७, पृ० १०० ७. वही ८. (क) द्रष्टव्य, न्या० कु. च०, १५, पृ० १४३
(ख) स्या० र०,१७, पृ० १०० १. वही
जैन दर्शन मीमांसा
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