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आचार्य कुन्दकुन्द की संतुलित दृष्टि
डॉ० लालबहादुर शास्त्री
दिगम्बर जैनाचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द का प्रमुख स्थान है और वह इसलिये कि अगर आचार्य कुन्दकुन्द न होते तो आज दिगम्बर जैन धर्म का अस्तित्व न होता । श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय में १२ वर्ष के दुर्भिक्ष के बाद जो जैनत्व की परंपरा चली आ रही थी उसमें इतना विकार आ गया था कि सच्चा जैनत्व क्या है लोग इसको भूल ही गये थे, अतः इस विकृति को हटाने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने पाहुड ग्रन्थों की रचना की और अनेक सुदृढ़ एवं व्यवस्थित निर्णय दिये। साथ ही धर्म के नाम पर भोग विलासिता के आडम्बर को दूर कर अध्यात्म का उपदेश दिया समयपाहुड ग्रंथ उसी का परिणाम है। यह सही है कि विभक्त और अपने आप में अद्वैत आत्मा का वर्णन करने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चयदृष्टि को प्रधान रखा है, पर व्यवहार दृष्टि को उन्होंने भुलाया नहीं है। प्रत्युत बीच-बीच में वे विषय को समझाने के लिये व्यवहार-दृष्टि का भी संकेत करते गये हैं। यहां हम कुछ उदाहरण देंगे जिनसे पाठक यह समझ सकेंगे कि कुन्दकुन्द अपने कथन के लिये सदा सापेक्ष रहे हैं, निरपेक्ष नहीं।
समयसार की छठी गाथा में कुन्दकुन्द कहते हैं कि यह आत्मा न प्रमत्त है न अप्रमत्त है शुद्ध ज्ञापक है। यहां तक कि आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र भी नहीं है। किन्तु आगे सातवीं गाथा में कहते हैं, आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र व्यवहार-नय से है। निश्चय से न ज्ञान है, न दर्शन है।'
गाथा नं० ८ में लिखा है कि बिना व्यवहार के परमार्थ का उपदेश नहीं है। गाथा नं०६ व १० में कहा है कि जो श्रुत से आत्मा को जाने वह परमार्थ से श्रुतकेवली है। जो समस्त श्रुत को जाने वह (व्यवहार से) श्रुतकेवली है। १२वीं गाथा में लिखा है कि परमभाव में जो स्थिति है उनको शुद्ध नय का उपदेश है और जो अपरम भाव में स्थिति है उनको व्यवहार का उपदेश है। इसी गाथा के अन्तर्गत अमृतचंद्र आचार्य ने दो कलश श्लोक दिये हैं जिनका आशय है यदि जिनेन्द्र के मत में दीक्षित होना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों को मत छोड़ो व्यवहार के बिना तीर्थ नष्ट हो जायेगा और निश्चय के बिना तल नष्ट हो जायेगा।"
'दोनों नयों के विरोध को दूर करने वाले स्याद्वाद से अंकित जिनेन्द्र भगवान् के वचनों में जो रमण करते हैं वे शीघ्र ही उस समयसार ज्योति को देखते हैं जो सनातन है और किसी नय पक्ष से क्षुण्ण नहीं।'५
गाथा १४ से लेकर पुन: शुद्ध नय की प्रधानता से कथन है और लिखा है 'कर्म, नो कर्म (शरीर) आदि सबसे पृथक् यह आत्मा है। किन्तु गाथा नं० २६ में व्यवहार का समर्थन करते हुए लिखते हैं कि व्यवहार नय की अपेक्षा जीव और शरीर एक हैं किन्तु निश्चय नय से वे कभी एक नहीं हैं। - इसके बाद आचार्य ने अध्यवसान आदि भावों को पुद्गल बताया है। किन्तु गाथा ४६ में वे पुन: व्यवहार दृष्टि देते हुए लिखते हैं। भगवान् जिनेन्द्र ने अध्यवसानादि भावों को व्यवहार दृष्टि से जीव के भाव बतलाये हैं और आगे की गाथाओं में दृष्टान्त देकर अपने कथन का दृढ़ीकरण किया है।
१. अष्टपाहुड इत्यादि २. 'णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो।' ३. 'बवहारे णुव दिस्सदि णाणिस्स चरित्तदसणं णाणं । __णविणाणं ण चरितं ण दसणं जाणगो सुद्धो।' ४. 'जइ जिणमपं पवज्जह ला मा ववहार णिच्छाए मुयह ।
एवकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णण उण तच्चं।' ५. 'उभयनय विरोधध्वंसनि स्यात्पदांके जिन वचसि रमत्ते ये स्वयं वान्तमोहा सपदि समय सारं ते स्वयं ज्योतिरुच्चरनवमनयपक्षाक्षुणवीक्षत एव', गाथा नं०४
जैन दर्शन मीमांसा
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