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सत्य का मरहम
शरीर में जब तक ऊष्मा रहती है तब तक यदि शरीर पर मक्खी-मच्छर आदि बैठते हैं तो शरीर उसे सहन नहीं कर पाता। ऊष्मा समाप्त होने के पश्चात् यदि शरीर के टुकड़े-टुकड़े भी कर दिये जायें तो भी उसे पता नहीं लगता। साधक के जीवन में भी सत्य की ऊष्मा रहती है, तब तक कोई भी दुर्गुणरूपी मक्खी-मच्छर उसे बर्दाश्त नहीं होता। शास्त्रों में बताया गया है.----यदि किसी श्रमण से मोह की तीव्रता के कारण महाव्रत भंग हो गया हो और वह आचार्य, उपाध्याय या गुरुजन के समक्ष जाकर अपनी उस भूल को उनके सामने यथातथ्य बताकर तथा प्रायश्चित लेकर शुद्ध हो जाता है तो उस श्रमण को आचार्य आदि वरिष्ठ पद भी दिया जा सकता है। महाव्रत-भंग जैसे भयंकर घाव को भी सत्यरूपी मरहम भर देता है । जिस श्रमण का सत्य महाव्रत पूर्ण रूप से सुरक्षित है, वह श्रमण अन्य महाव्रतों को भंग करने पर भी सुधर सकता है । वह अपनी गलती को गलती के रूप में स्वीकार कर अपनी शुद्धि कर सकता है। यदि साधक भूल करके भी भूल को भूल नहीं मानता है, उनका प्रायश्चित नहीं करता है तो उसका सुधार कभी भी सम्भव नहीं है, वह आराधक नहीं बन सकता।
जैसे गुरुतर व गुप्त व्याधि से ग्रसित रुग्ण व्यक्ति चिकित्सक के सामने गुप्त से गुप्त बात भी प्रकट कर देता है तो चिकित्सक उसके रोग का सही निदान कर देता है । चिकित्सक रुग्ण व्यक्ति के गलत कार्यों की निन्दा और भर्त्सना नहीं करता, अपितु औषधि देकर तथा शल्य चिकित्सा कर उसे जीवन-दान देने का प्रयास करता है । वैसे ही सद्गुरु रूपी चिकित्सक भी पापी से घृणा नहीं करते, पर प्रायश्चित देकर उसके अध्यात्म रोग को नष्ट कर स्वस्थ बनाते हैं।
सत्य का अपूर्व बल
सत्य का उपासक साधक स्वयं की गलतियों को गलती समझकर उन गलतियों को सुधारता है । एतदर्थ ही सत्य को स्वयंभू, सर्वशक्तिमान् और स्वतीर्थगुप्त (रक्षित) कहा गया है।
सत्य में अपूर्व बल है। जिस साधक में सत्य का बल व्याप्त हो, वह साधक तोप व मशीनगनों के सामने भी सीना तानकर खड़ा हो जाता है, वह भय से कांपता नहीं है । बाइबिल में कहा है सत्य ही महान् है और परमशक्तिशाली है । यह जनबल, परिजनबल, धनबल और सत्ताबल से भी बढ़कर है ।
असत्य का बल चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो वह कागज की नौका की तरह और बालू के महल की तरह है। जिनके डूबने और ढहने में समय नहीं लगता । मैंने देखा है-दिल्ली में रामलीला के अवसर पर विशालकाय रावण के पुतले निर्मित होते हैं । जिसे देखकर मन में एक कुतूहल होता है कि इतने विशालकाय रावण को एक नन्हा सा राम कैसे समाप्त कर देगा? पर वह पुतला कागज और बांस की खपच्चियों से बना हुआ होता है जिसमें बारूद होता है । जरा-सी चिनगारी का स्पर्श पाते ही कुछ ही क्षणों में जलकर भस्म हो जाता है । यही स्थिति असत्य के आधार पर खड़े हुए बाह्य-आचरण की है। उसमें वास्तविकता एवं स्थिरता का अभाव होता है।
सत्य का दिव्य प्रभाव
सत्य का वट वृक्ष शनैः शनैः बढ़ता है, फलता है, फूलता है; पर उसकी जड़ें बहुत ही गहरी होती हैं। वह शताधिक वर्षों तक अपना अस्तित्व बनाये रखता है, आंधी और तूफान भी उसे धराशायी नहीं कर पाते। जबकि लताएं बहुत ही शीघ्रता से बढ़ती हैं और शीघ्र ही नष्ट भी हो जाती हैं। हल्का सा सूर्यताप उन्हें सुखा देता है। और मामूली वर्षा से ही वे सड़ जाती हैं। इसीलिए कहा है-- “सत्य में हजार हाथियों के बराबर बल होता है"। सत्यनिष्ठ व्यक्ति में इतना अधिक आत्मबल होता है कि उसके सामने भौतिक व अनैतिक बल टिक नहीं सकता।
आवश्यकसूत्र और प्रश्नव्याकरणसूत्र में सत्यवादी का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि सत्यवादी सत्य के दिव्य-प्रभाव से विराटकाय समुद्र को तैर सकता है । पानी उसे डुबा नहीं सकता और अग्नि उसे जला नहीं सकती। खौलता हुआ तेल, तप्त-लोहा, गर्म शीशा सत्यवादी के हाथ का संस्पर्श होते ही बर्फ की तरह शीतल हो जाते हैं। पर्वत की ऊंची चोटियों से गिरकर भी वह मरता नहीं। शत्रुओं से घिरने पर भी शत्रु उसका बाल-बांका नहीं कर पाते। यहां तक कि देव भी उसके चरणों की धूल लेने के लिए लालायित रहते
योगदर्शन में सत्य की अपार शक्ति का परिणाम प्रतिपादित करते हुए कहा है- सत्य-प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् सत्य का पूर्ण परिपाक हो जाने पर किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं रहती। वह चाहे जिसे वरदान या अभिशाप दे, वह सत्य होकर ही रहता है।
सत्य सुदृढ़ कवच है
पाश्चात्य दार्शनिक कांट का अभिमत है, सत्य वह तत्त्व है जिसे अपनाने पर मानव भले-बुरे की परख कर सकता है। हृदय में
जैन दर्शन मीमांसा
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