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सफल हो जाता है उसके लिये ही शास्त्राध्ययन स्वाध्याय कहा जा सकता है । अन्य सभी के लिये तो वह शास्त्राध्ययन ही है, स्वाध्याय नहीं। स्वाध्याय को ही परम तप कहा गया है शास्त्राध्ययन को नहीं, क्योंकि स्वाध्याय से जिस प्रकार कर्मों के शतखण्ड होते देखे जाते हैं उस प्रकार शास्त्राध्ययन से नहीं देखे जाते । स्व-अध्ययन से निरपेक्ष शास्त्राध्ययन तो अध्येता में ज्ञानाभिमान उत्पन्न करके कर्मों की वृद्धि का ही हेतु होता है, हानि का नहीं।
इसी प्रकार आचरण के क्षेत्र में भी समझा जा सकता है। आचरण शब्द जीवन की सहज गति का द्योतक है। चारित्रं खलु धम्मो, यह सूत्र चारित्र को धर्म अथवा स्वभाव घोषित करता है, क्योंकि धर्म का पारमार्थिक अर्थ वस्तु का स्वभाव किया गया है, बाह्य का क्रियाकाण्ड नहीं। वह जीवन को समता स्वभाव को हस्तगत कराने में निमित्त अवश्य हो सकता है। परन्तु जिस प्रकार शास्त्राध्ययन पर से कोई विरला ही स्वाध्ययन करने में सफल होता है और परमार्थतः उसी के प्रति उसे निमित्त कहा जा सकता है सबके प्रति नहीं, उसी प्रकार बाह्य क्रिया-कलाप पर से भी कोई विरला ही समता स्वभाव की प्राप्ति में सफल होता है, और परमार्थतः उसी के प्रति उसे निमित्त कहा जा सकता है, सबके प्रति नहीं।
निमित्त कहो या साधन एक ही बात है और प्राप्तव्य कहो या साध्य एक ही बात है। साधन को शास्त्रीय भाषा में व्यवहार कहा जाता है और साध्य को निश्चय । इसीलिये व्यवहार को सर्वत्र निश्चय का साधन कहा गया है। जिस प्रकार साध्य या निश्चय की प्राप्ति साधन या व्यवहार के बिना होनी सम्भव नहीं है, उसी प्रकार निश्चय या साध्य की प्राप्ति से निरपेक्ष रहता हुआ व्यवहार साधन कहलाने के लिये समर्थ नहीं है । यही साधन तथा साध्य की अथवा व्यवहार तथा निश्चय की मैत्री है।
स्वाध्याय के नाम पर शास्त्राध्ययन करने वाले हों या चारित्र के नाम पर बाह्य क्रियाकलाप करने वाले, दोनों इस न्याय की दृष्टि में समान हैं। दोनों ही एक नाव के पथिक हैं । इनमें से किसी भी एक को छोटा या बड़ा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि स्वाध्याय से निरपेक्ष शास्त्राध्ययन जिस प्रकार ज्ञानाभिमान जागृत करके कर्मों में वृद्धि करता है उसी प्रकार समता से निरपेक्ष बाह्य क्रिया-कलाप भी चारित्राभिमान या तपाभिमान जागृत करके कर्मों में वृद्धि ही करता है । “ये दोनों कर्म के इस वेग से अपनी रक्षा किस प्रकार करें" इस प्रश्न का उत्तर देना बहुत कठिन है क्योंकि जब तक वे स्वयं अपनी असमीचीनता को नहीं पहचान जाते तब तक इससे छुटकारा सम्भव नहीं । विश्वास किसी दूसरे के कहने से नहीं स्वयं अपने मन के कहने से होता है।
तत्वज्ञ की दृष्टि कुछ विचित्र ही होती है जिसका परिचय इन दोनों को ही नहीं है। वह ही समीचीनता के रहस्य को ठीक-ठीक जानता है, वह ही शास्त्राध्ययन का प्रयोग स्व-अध्ययन के लिये और बाह्य क्रिया-कलाप का प्रयोग समता की प्राप्ति तथा वृद्धि के लिये करता है, पाकर कर सकता है। उसके ढंग निराले हैं जिसे पहचानना साधारण दृष्टि की पहुंच से बाहर है। अपने भीतर-बाहर, दायें-बायें, ऊपरनीचे, आगे-पीछे सर्वत्र ही वह एक तथा अखण्ड तात्त्विक विधान के दर्शन करता है, जो सहज तथा स्वाभाविक होने के कारण प्राकृतिक है, कृतक नहीं। उसे न यहां कुछ मैं दोखता है न मेरा, न तू न तेरा, न मनुष्य न तिर्यञ्च, न स्त्री न पुरुष, न बच्चा न बूढ़ा, न ब्राह्मण न शूद्र, न जैन न अजैन, न हिन्दू न मुस्लिम, न धर्म न अधर्म । उसे न यहां कुछ जन्म दीखता है न मृत्यु, न इहलोक न परलोक, न इष्ट न अनिष्ट, न मनोज्ञ न अमनोज्ञ, न अनुकूल न प्रतिकूल, न स्व न पर। ये सकल द्वन्द्व मनुष्य के मन में उपजी विकल्पकृत उपाधि हैं जिनका तात्विक विधान में कोई स्थान नहीं । जहां-जहां केवल तत्व ही तत्व में वर्तन करते प्रतीत हो रहे हैं वहां इन द्वन्द्वों को अवकाश कहां? सभी प्रकार के सम्बन्ध या रिश्ते-नाते, मनुष्यकृत हैं, प्राकृतिक या तात्विक नहीं। तब कौन पिता और कौन पुत्र, कौन भाई और कौन बहिन, कौन पति और कौन पत्नी, कौन मित्र और कौन शत्रु, कौन स्वामी और कौन सेवक । इन सब लौकिक सम्बन्धों की तो बात नहीं यहां तो साध्य-साधक, वाच्य-वाचक, उपास्य-उपासक, भगवान्-भक्त आदि के उस द्वैत को भी कहीं अवकाश नहीं है जिसका उल्लेख तात्विक विधान समझाने के लिये अध्यात्मशास्त्रों में प्राय: किया जाता है। इतना ही क्यों यहां तो गुरु-शिष्य का वह भेद भी विलय को प्राप्त हो जाता है जो कि साधक दशा में मुमुक्ष का मूल आधार है और जिसका आश्रय लिये बिना तीन काल में भी कल्याण नहीं।
परन्तु अरे रे! यह क्या? तत्वज्ञ के मुख से इस प्रकार की व्यवहार विरुद्ध बातें सुनकर तू भी समस्त व्यवहार का लोप करने लगा? याद रख, नष्ट हो जायेगा, व्यवहार की चक्की में पिसकर रह जायेगा। जब तक चित्त में तनिक सा भी द्वैत है तब तक तत्वदृष्टि नहीं और जब तक तत्व-दृष्टि नहीं तब तक व्यवहार की भूमि का अतिक्रम सम्भव नहीं। पिता-पुत्र, शत्रु-मित्र, स्त्री-पुरुष, ब्राह्मण-शूद्र आदि के लौकिक-द्वत का लोप करने से पहले ही भगवान्-भक्त, गुरु-शिष्य, धर्म-अधर्म, साध्य-साधक आदि के परमार्थिक द्वैत का लोप करने से क्या तू व्यवहारातीत हो जायेगा। यही तो वह भ्रान्ति है जो कि शब्दाध्ययन के द्वारा प्रायः उत्पन्न हुआ करती है। रक्षा कर, इस भ्रान्ति से अपनी रक्षा कर । मुमुक्षु के लिये इससे अधिक विनाशकारी अन्य कुछ नहीं है।
दृष्टि में तथा आचरण में द्वैत के जीवित रहते केवल मुख से अद्वैत के राग अलापना किसको कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है। अन्दर कुछ और बाहर कुछ, इस प्रकार की वक्र प्रवृत्ति को शास्त्रों में मायाचारी कहा गया है, आत्म-वंचना कहा गया है। क्या तू नहीं जानता
जैन दर्शम मीमांसा
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