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हैं । सांख्य पुरुष को कर्ता नहीं मानता कन्तु प्रातिभासिक कर्ता और फल भोक्ता मानता है। उसका मानना है कि कर्तृत्वशक्ति प्रकृति में है। "मैं हूं" 'यह मेरा है', इस प्रतीति के द्वारा आत्मा का अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध है। बुद्धि में चेतना-शक्ति का प्रतिबिम्ब पड़ने से आत्मा (पुरुष) अपने को अभिन्न समझता है, अतः आत्मा में 'मैं सुखी हूं, दुःखी हूं', ऐसा ज्ञान होता है।
मीमांसा दर्शन
मीमांसकों का मानना है कि आत्मा कर्ता तथा भोक्ता है । वह व्यापक है और प्रत्येक शरीर में विद्यमान है। ज्ञान सुख-दुःख तथा इच्छादि गुण उसमें समवाय-सम्बन्ध से रहते हैं । आत्मा ज्ञानसुखादिरूप नहीं है। भाट्ट-मीमांसक आत्मा को अंशभेद से ज्ञानस्वरूप और अंशभेद से जड़स्वरूप मानता हो उसकी मान्यता है कि आत्मा बोध-अबोध रूप है। भाट्ट आत्मा के क्रिया-स्वरूप को मानते हैं उनके अनुसार परिणामशील होने पर भी आत्मा नित्य पदार्थ है। आत्मा चिदंश से प्रत्येक ज्ञान को प्राप्त करता है और अचिदंश से वह परिणाम को प्राप्त करता है ।' कुमारिल आत्मा को चैतन्यस्वरूप नहीं किन्तु चैतन्य विशिष्ट मानते हैं। शरीर तथा विषय से संयोग होने पर आत्मा में चैतन्य का उदय होता है पर स्वप्नावस्था में विषय से सम्पर्क न होने के कारण आत्मा में चैतन्य नहीं रहता। जैन-दर्शन
___ दर्शन-क्षेत्र में जैन-दर्शन का विशेष महत्त्व है। इसका जीव-अजीव का सिद्धान्त महत्वपूर्ण है । जैन-दर्शन वैज्ञानिक दर्शन है। इसकी मान्यता है कि चेतना ही 'जीव' या आत्मा है । चैतन्य ही प्रत्येक जीव का स्वरूप है।
चेतना लक्षणो जीव:५ आत्मा जड़ से भिन्न और 'चैतन्यस्वरूप' है। सांख्ययोग में जिसे 'पुरुष' कहा गया है, बौद्ध जिसे विज्ञान-प्रवाह' कहते हैं, चार्वाक जिसे 'चैतन्य-विशिष्ट-देह' मानते हैं, और न्याय-वैशेषिक तथा वेदान्तमत से जो आत्मा है, वह जैन-दर्शन की दृष्टि से जीव है। इतने पर भी जैन दर्शन की आत्माविषयक विचारधारा अन्य दर्शनों से स्वतन्त्र है। द्रव्यसंग्रह में जीव की व्याख्या इस प्रकार है
जीवो उवओगमओ अमुत्तो कत्ता सदेहपरिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥ अर्थात् जीव उपयोगमय, अमूर्त, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और स्वभावत: ऊर्ध्वगतिवाला होता है। इसी प्रकार की व्याख्या कुन्दकुन्दाचार्य ने भी पंचास्तिकाय में की है
जीवोत्ति हवदि चेदा उवओग विसेसिदो पहू कत्ता ।
__भोत्ता च देहमत्तो ण हि मूत्तो कम्मसंजुत्तो॥ अर्थात् जीव अस्तित्ववान्, चेतन, उपयोगमय, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, देहमात्र, अमूर्त और कर्मसंयुक्त है।
जैनों ने आत्मा की सूर्य से उपमा दी है। आत्मा के साथ ही जीव है अन्यथा मृत है । बन्धनयुक्त होने पर आत्मा की शक्ति परिमित हो जाती है। आत्मा जीव है और जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है। आत्मा शरीर से भिन्न है और सर्वत्र व्याप्त है । इसका यह अर्थ नहीं कि यह जड़ द्रव्यों की तरह विस्तार करता है, परन्तु इसमें शरीर के भिन्न अंगों के अनुभव वर्तमान हैं । आत्मा आलोक की तरह शरीर के प्रत्येक स्थान में चैतन्य द्वारा व्याप्त रहता है। यह शरीर का परिचालक है और इन्द्रियां साधन हैं । शरीर और चैतन्य में कार्य-कारण का सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। शरीर के साथ चैतन्य का साहचर्य नित्य नहीं होता जैसे निद्रा और मूर्छा के समय चैतन्य अपना कार्य करता है।
महावीर ने आत्मा को सरल शब्दों में इस प्रकार बताया है
१. 'प्रकृतेरेव वस्तुतः कर्तृत्वम् तच्च प्रकृतिसम्बन्धाज्जीवात्मनि प्रतिभासः,
अतस्तत्प्रातिभासिकमिति सांख्या पातञ्जलाश्च वदन्ति भोक्तृत्वमप्येवमेव ।', सर्व द० संग्रह, पृ० ५८ २. सांख्यकारिका, ६२ ३. 'भाट्टाः आत्मानमंशभेदेन ज्ञानस्वरूपं जड़स्वरूपं चेच्छन्ति । तेषां मत आत्मा बोधाबोधरूप इति...।', चित्रपद प्रकरण, ६/६५ ४. 'चिदंशेन दृष्टत्व सोऽयमिति प्रत्यभिज्ञा, विषयत्वं च अचिदंशेन ।', वही ५. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ०४७ ६. द्रव्यसंग्रह, गाथा २ ७. पंचास्तिकाय।
जैन दर्शन मीमांसा
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