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जैनदर्शन में जीवद्रव्य
डॉ० श्रेयांस कुमार जैन
प्राचीन काल से भारत वर्ष में प्रधान रूप से आचार और विचार सम्बन्धित दो परम्पराएं विद्यमान हैं। आचार पक्ष का कार्य धार्मिकों ने सम्पादित किया और विचार पक्ष का बीड़ा भारतीय-चिन्तक-मनीषियों ने उठाया। आचार का परिणाम धर्म का उद्भव और विचार का परिणाम दर्शन का उद्भव है।
दर्शन शब्द का सामान्य अर्थ है-देखना, साक्षात्कार करना तथा प्रत्यक्ष ज्ञान से किसी वस्तु का निर्णय करना।
भारतीयों के सामने 'दुःख से मुक्ति पाना' यही प्रधान प्रयोजन था। इसी प्रयोजन की सिद्धि हेतु विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं ने जन्म लिया। दुःख से छुटकारा कराने वाली प्रमुख विचारधाराएं इस प्रकार हैं--चार्वाक, जैन, बौद्ध, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा (वेदान्त) । इन्हें विद्वानों ने आस्तिक और नास्तिक दो शाखाओं में विभाजित किया है। उत्तरवर्ती षड्वैदिक दर्शनों (सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा) को आस्तिक और प्रथम तीन (चार्वाक, बौद्ध, जैन) को नास्तिक संज्ञा दी है।
वस्तुतः उक्त वर्गीकरण निराधार है । आस्तिक और नास्तिक शब्द अस्ति नास्ति दिष्टं मतिः-पा०४/४/३० इस पाणिनीय सूत्र के अनुसार बने हैं । मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक-सत्ता को मानने वाला आस्तिक और न मानने वाला नास्तिक कहलाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन और बौद्ध जैसे दर्शनों को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता है, क्योंकि इन दोनों में परलोक-सत्ता को दृढ़ता से स्वीकार किया गया है।
कुछ दार्शनिकों ने षड्दर्शन बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीय स्वीकार किये हैं।'
जैन दर्शन भारतीय दर्शनों का समन्वित स्वरूप है। इसमें द्रव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक होता है। गुणपर्याय वाला द्रव्य भी कहा गया है। अनेक गुण और पर्याय युक्त द्रव्य के मूल षड् भेद हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल'।
प्रथम जीव-द्रव्य का जैन दर्शन में स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में विशद विवेचन प्राप्त होता है, उसी का संक्षिप्त निर्देशन किया जा रहा है
जीव का सामान्य स्वरूप उपयोग है। उपयोग का अर्थ है--ज्ञान और दर्शन। ज्ञानोपयोग दो प्रकार का है-स्वभावज्ञान और विभावज्ञान । जो केवल-निरूपाधिरूप, इन्द्रियातीत तथा असहाय अर्थात् प्रत्येक वस्तु में व्यापक है, वह स्वभावज्ञान है और उसी का नाम केवलज्ञान है। विभावज्ञान सज्ज्ञान और असज्ज्ञान के भेद से दो तरह का है। सज्जान चार प्रकार का है-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ।
१. 'दर्शनानि षडेवावमूलभेदव्यपेक्षया
बौद्ध नैयायिक सांख्य, जैन वैशेषिक तथा । जैमिनीयं च नामानि, दर्शनानामभूत्यहो ।', षड्दर्शनसमुच्चय, ३ २. 'उत्पादव्यय धोव्ययुक्तं सत्', तत्वार्थसूत्र, ५/३० ३. 'गुणपर्ययवव्यम्', वही, ५/३८ ४. 'जीवापोग्गल काया धम्माधम्मा य काल आया ।
तच्चत्था इदि भणिदा णाणगुणपज्जएहि संजुत्ता ।।', नियमसार, गा०६ ५. 'जीबो उवओगमओ उवओगो णाणदसणो होई। ____णाणुवओगो दुविहो सहावणाणं विभावणाणत्ति ।।', वही, गा० १३ ६. वही, ११-१२
जैन दर्शन मीमांसा
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