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भी पाता है, वह सब उसके कर्मों का ही परिणाम है । उसकी सभी शारीरिक और मानसिक क्षमताएं जीव की प्रवृत्ति के अनुरूप होती हैं । इस कारण जैन दर्शन में कई प्रकार के कर्मों की चर्चा है। जैसे नामकर्म, गोत्रकर्म, आयुकर्म, मोहनीयकर्म, वेदनीयकर्म, ज्ञानावरणीय कर्म इत्यादि । व्यक्ति जो शरीर प्राप्त करता है या उसकी जो शारीरिक और मानसिक क्षमताएं होती हैं, वे उसके कर्म के परिणाम हैं । व्यक्ति की आयु उसके ‘आयुकर्म' द्वारा निर्धारित होती है । उसका गोत्र उसके ‘गोत्रकर्म' से निर्धारित है। ‘ज्ञानावरणीय' कर्म से उसका ज्ञान दंक जाता है। 'दर्शनावरणीय' कर्म से उसका दर्शन आवृत्त हो जाता है। 'मोहनीयकर्म' से उसमें मोह उत्पन्न होता है और वेदनीयकर्म' से उसमें सुख-दुःख की वेदना होती है । इस प्रकार जीवन में जो कुछ भी घटता है, वह जीवन के अपने कर्मों का ही परिणाम है। महावीर कार्य-कारण के सार्वभौम सिद्धान्त में विश्वास करते हैं। अत: वे मानते हैं कि व्यक्ति के जीवन में जो भी होता है, वह आकस्मिक या संयोगवश नहीं, वरन् व्यक्ति के पूर्व कर्मों का परिणाम है । अतएव कर्म ही बन्धन का कारण है। भाव-बंध की अवस्था में केवल भावना के स्तर पर बन्धन होता है, जबकि द्रव्य-बन्ध की स्थिति में वास्तव में पुद्गल का संयोग आत्मा के साथ हो जाता है। सांख्य, वेदान्त आदि केवल भाव-बन्ध को मानते हैं। उनके अनुसार द्रव्य-बन्ध नहीं होता। आत्मा कभी वास्तव में बन्धन में पड़ती ही नहीं है, क्योंकि स्वभाव से वह शुद्ध, बुद्ध और मुक्त या सच्चिदानन्द है। परन्तु जैन दर्शन मुक्ति के सम्बन्ध में वस्तुवादी दृष्टिकोण अपनाता है। इस कारण यह मानता है कि वास्तव में आत्मा और पुद्गल का संयोग हो जाता है।
जैन दर्शन बन्धन के चार आयाम मानता है। प्रकृति बन्ध, प्रदेश बन्ध, स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्ध । आत्मा की ओर कौनकौन प्रकार के पुद्गल कण आकृष्ट होंगे, उसे 'प्रकृति बन्ध' कहा जाता है । फिर ये पुद्गल कण आत्मा के किस प्रदेश में संयोगित होंगे, इसे 'प्रदेश बन्ध' कहते हैं। साथ ही साथ, पुद्गल कणों का संयोग आत्मा के साथ कितने समय तक होगा इसे स्थिति बन्ध' और पुद्गल कणों का आत्मा पर जो प्रभाव पड़ता है, उसे 'अनुभाग बन्ध' कहते हैं। प्रकृति बंध, प्रदेश बन्ध तथा स्थिति बन्ध का निर्धारण कषाय' के द्वारा होता है और अनुभाग बन्ध का निर्धारण 'योग' द्वारा होता है। 'कषाय' चित्त की वृत्तियां हैं और 'योग' जोड़ने की आत्मा का क्षमता। कषाय के कारण विशेष प्रकार के पुद्गल कणों का आस्रव आत्मा की ओर होता है और वे आत्मा के विभिन्न प्रदेशों में संगठित होते हैं तथा एक समय-विशेष के लिए उनकी स्थिति रहती है। ये पुद्गल-कण आत्मा के योग के कारण संगठित हो जाते हैं और इस प्रकार विभिन्न आकृतियों और क्षमताओं वाले देह का निर्माण होता है और भौतिक वातावरण प्राप्त होता है। इस प्रकार पुद्गल के जाल में आत्मा फंस जाती है (स कषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान्पु द्गलानादत्ते स बन्धः) ।'
मोक्ष विचार-चूंकि पुद्गल का आत्मा को ढंक लेना बन्धन है, अतः पुद्गल का आत्मा से अलग होना मोक्ष है इसलिए दो प्रक्रियाएं आवश्यक हैं- 'संवर' और 'निर्जरा' । पुद्गल कणों का आस्रव बराबर आत्मा की ओर होता रहता है तथा कुछ पुद्गल-कण स्थायी रूप से संयुक्त हो गये हैं, अतः आत्मा को परिष्कृत करने के लिए दो बातें आवश्यक हैं--पहली यह कि जिन पुद्गल कणों का आस्रव आत्मा की ओर हो रहा है उसे रोक देना, यह ‘संवर' है। दूसरे, जो पुद्गल-कण पहले से आत्मा से संयुक्त हो चुके हैं, उन्हें हटाना इसे, 'निर्जरा' कहते हैं। इन दो प्रक्रियाओं से आत्मा रूपी मणि से पुद्गल रूपी रज कणों को झाड़-पोंछकर अलग किया जा सकता है, जिससे आत्मा की मणि पुनः चमकने लगती है और वह अपनी खोयी शक्तियां-अनन्त चतुष्टय--पुन: उपलब्ध कर लेती है। मोक्ष की स्थिति अनन्त दर्शन, ज्ञान, वीर्य और आनन्द की स्थिति है । यह बुद्ध के 'निर्वाण' की भांति निषेधात्मक नहीं, वरन् भावात्मक है।
संवर और निर्जरा के लिए तीन मार्ग बताये गये हैं जिन्हें जैन दर्शन में त्रिरत्न' की संज्ञा दी गई है। वे हैं-सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ।।
सम्यक् दर्शन-हमारे भीतर जो कुछ भी हो रहा है उसके तटस्थ दर्शन को सम्यक् दर्शन कहा जाता है। इस तटस्थ दर्शन से व्यक्ति जो कुछ भी हो रहा है उससे मुक्त हो आत्म-स्थित हो जाता है । कुछ लोग मानते हैं कि सम्यक् दर्शन का अर्थ तीर्थंकरों के वचन में आस्था है। भगवान् महावीर के अनुसार “जिसमें स्वयं ज्ञान है, उसे आस्था की आवश्यकता नहीं है, किन्तु जो अज्ञानी है, उसके लिए आस्था भी मार्ग है। फिर भी भगवान् का जोर स्वयं में ज्ञान के जागरण पर ही है, क्योंकि उन्होंने अंधानुकरण का विरोध किया—णो लोगस्स सेषणं चरे। जो कुछ हो, सम्यक् दर्शन बोधयुक्त आस्था है, अंध-विश्वास नहीं। जैन दार्शनिक मणिभद्र ने कहा है-'न मेरा महावीर के लिए कोई पक्षपात है, न कपिल के लिए कोई द्वेष । युक्तियुक्त वचन ही मुझे ग्राह्य हैं, चाहे वे किसी के हों।
पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेष कपिलादिषु युक्तिमद्वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ।
१. तत्वार्थ सूत्र, ८/२ २. 'उद्देसो पासगस्स नत्यि।', आचारांग सूत्र, २/३ ३. 'संपिक्खए अप्पगमप्पएण ।', दशवकालिक सूत्र चूलिका, २/१२
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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