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रहे हुए सभी सद्गुणों के विकास की चाबी मानव की सत्यनिष्ठा में सन्निहित है। असत्य दुर्गुणों की खान है। सत्य सभी सद्गुणों में श्रेष्ठ है, अतः आत्मबल की अभिवृद्धि और ईश्वरत्व संप्राप्त करने के लिए भारतीय तत्त्वचिन्तकों ने सत्य को सभी सद्गुणों में श्रेष्ठ सद्गुण माना है। चीन के महान् चिन्तक कन्फ्यूशियस का अभिमत है कि जो सत्यार्थी होगा, वह कर्मठ भी होगा। आलस्य और विलासिता असत्य की देन है।
सत्य का पवित्र पथ ऐसा पथ है, जिस पर चलने वाले को न अहंकारी सतायेगा और न माया ही परेशान करेगी। सत्य ऐसा सुदृढ़ कवच है, जिसे धारण करने पर दुर्गुण चाहे कितना भी प्रहार करे किन्तु सत्यवाद पर उनका कोई असर नहीं होगा। सत्य अभीष्ट फल प्रदान करने वाला है।
एक कवि ने कहा है-इस पृथ्वी पर ऐसा कौन सा मानव है जिसके हृदय को मधुर व सत्य वचन हरण नहीं करता है । वह सभी के हृदय को आकर्षित करने वाला महामंत्र है । संसार का प्रत्येक प्राणी प्रतिपल-प्रतिक्षण सत्य वचन सुनने की ही आकांक्षा करता है। देव भी सत्य वचन से प्रसन्न होकर मनोवांछित फल प्रदान करते हैं । इसीलिए तीन लोकों में सत्य से बढ़कर अन्य कोई भी व्रत नहीं है। उपनिषत्कार ने कहा है- 'सत्य ज्ञानरूप और अनन्तब्रह्मस्वरूप है।'२ .
सत्य महाव्रत की भावनाएं
गृहस्थ साधक सत्य को स्वीकार तो अवश्य करता है, पर परिपूर्ण रूप से वह सत्य का पालन नहीं कर पाता। उसका सत्य अणुव्रत होता है, किन्तु श्रमण सत्य को पूर्ण रूप से स्वीकार करता है, इसलिए उसका सत्य सिर्फ व्रत नहीं, महाव्रत होता है।
क्रोध, लोभ, हास्य, भय, प्रमाद आदि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के अस्तित्व में रहने पर भी मन, बचन और काया से तथा कृत, कारित और अनुमोदना से कभी भी झूठ न बोलकर हर क्षण सावधानीपूर्वक हितकारी, सार्थक और प्रियवचन बोलना सत्य महाव्रत है।' निरर्थक और अहितकारी बोला गया सत्य वचन भी त्याज्य है। इसी तरह सत्य महाव्रती को असभ्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए।' 'यह भोजन बहुत ही अच्छा बना है, यह भोजन बहुत ही अच्छी तरह से पकाया हुआ है' इस प्रकार सावध वचन भी उसे नहीं बोलना चाहिए। मैं प्रस्तुत कार्य को आज अवश्य ही कर लूंगा' इस प्रकार निश्चयात्मक भाषा का भी प्रयोग श्रमण को नहीं करना चाहिए। क्योंकि सावध भाषा से हिंसा की और निश्चयात्मक भाषा के बोलने से असत्य होने की आशंका रहती है। इसलिए साधक को सदैव हितकारी, प्रिय व सत्य भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए ।
मन से सत्य बोलने का संकल्प करना भावसत्य है, सत्य बोलने का प्रयास करना करणसत्य है और सत्य बोलना योगसत्य है। भावसत्य से अन्त:करण विशुद्ध होता है, करणसत्य से सत्यरूप क्रिया को करने की अपूर्व शक्ति प्राप्त होती है तथा योगसत्य से मन-वचनकाया की पूर्ण शुद्धि होती है।
अहिंसा के उदात्त संस्कारों को मन में सुदृढ़ बनाने के लिए जैसे पांच भावनाओं का निरूपण किया है, वैसे ही सत्य महाव्रत की सुदृढ़ता के लिए पांच भावनाएं प्रतिपादित की गई हैं। जो श्रमण इन भावनाओं का मनोयोगपूर्वक चिन्तन करता है, वह संसार सागर में परिभ्रमण नहीं करता। भावनाओं के निदिध्यासन से व्रतों में स्थिरता आती है। मनोबल दृढ़ होता है और निर्मल संस्कार मन में सुदृढ़ होते हैं। अतः भावनाओं का आगम-साहित्य में विस्तार से विश्लेषण किया गया है। आचारांग", समवायांगई, और प्रश्नव्याकरण" में भावनाओं का निरूपण है, पर नाम व क्रमों में कहीं-कहीं अन्तर है। उनके नाम इस प्रकार हैं -
१. 'प्रियं सत्यं वाक्यं हरति हृदयं कस्य न भुवि ? गिरं सत्यां लोक: प्रतिपदमिमामर्थयति च ॥ सुराः सत्याद् वाक्याद् ददति मुदिता: कामितफलम् ।
अत: सत्याद् वाक्याद् व्रतमभिमतं नास्ति भुवने ॥' २. 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ।' ३. उत्तराध्ययन, २५/१४; १६/२७ ४. उत्तराध्ययन, २१/१४ ५. उत्तराध्ययन, १/२४, ३६ ६. उत्तराध्ययन, ३१/१७ ७. 'तत्स्थ थि भावना पंच-पंच ।' ८. आचारांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, १५वां भावना-अध्ययन है. समवायांग, २५वा समवाय १०. प्रश्नव्याकरणसूत्र, संवरद्वार, सातवां अध्ययन
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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