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सत्य की सर्वाङ्ग साधना
श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री
एक सिक्के के दो पहलू
सत्य विराट् है । वह अनन्त आकाश की तरह व्यापक है । वह आत्मा का शुद्ध स्वरूप है, यथार्थ अभिव्यक्ति है। अतः विश्व के सभी मूर्धन्य मनीषियों ने एक स्वर से सत्य के महत्त्व को स्वीकार किया है । सत्य की आराधना और साधना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वज्येष्ठ आराधना और साधना है। सत्य सूर्य की तरह जन-जन के अन्तर्मानस को आलोकित करने वाला व्रत है, तो असत्य अमा की रात्रि की तरह गहन अन्धकारमय है । सत्य और अहिंसा ये दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं । अहिंसा के अभाव में सत्य अस्तित्वहीन है और सत्य के अभाव में अहिंसा निर्मूल्य । अहिंसा को यदि निषेधात्मक माना जाय तो सत्य उसका विधेयात्मक पक्ष है। सत्य जीवन का मूल तत्त्व है, व्यावहारिक जीवन का मूल आधार है और आध्यात्मिक साधना का प्राण है। सत्य की आराधना के बिना सारी साधना मिथ्या है और सारा व्यावहारिक जीवन भी अस्त-व्यस्त है।
सत्य की परिभाषा
भारतीय चिन्तकों ने सत्य पर गहराई से चिन्तन करके उसकी परिभाषा करते हुए लिखा है-जो शब्द सज्जनता का पावन संदेश प्रदान करता है, सौजन्य भावना को उबुद्ध करता है और जो यथार्थ व्यवहार का पुनीत प्रतीक है, वह सत्य है । जिस शब्द के प्रयोग से जनजन का हित होता है, कल्याण होता है, आध्यात्मिक अभ्युदय होता है, वह सत्य है।' सत् वह है, जिसका कभी भी नाश नहीं होता। जो नष्ट हो जाता है, वह सत् नहीं है। कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन की जिज्ञासा पर कर्मयोगी श्रीकृष्ण ने कहा---जो असत् है, उसका कभी जन्म नहीं होता। वह कभी अस्तित्व में नहीं आता और जो सत् है, वह कभी भी नष्ट नहीं हो सकता। सत् हर समय विद्यमान रहता है। वह अतीत काल में भी था, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगा। वह त्रिकालवर्ती है।
जैनदर्शन के महान् चिन्तक आचार्य उमास्वाति ने सत् की परिभाषा करते हुए लिखा है---जो पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, वह सत् है। जैन दृष्टि से विश्व के सभी पदार्थ या तत्त्व जड़ और चैतन्य इन दो तत्त्वों में समाविष्ट हो जाते हैं। ऐसा कोई समय नहीं, जिनमें इन दोनों तत्वों का कोई अस्तित्व न रहा हो, प्रत्येक वस्तु द्रव्य रूप से नित्य है, पर्याय रूप से उसमें उत्पाद भी होता है, और विनाश भी होता है। बदलती हुई पर्यायों में भी जो अपने मूल स्वभाव को नहीं छोड़ता, वह द्रव्य है । पदार्थ का मूल गुण हर समय अपने ही स्वरूप में स्थित रहता है । सत्य यथार्थ है, वास्तविक है, उसमें किसी भी प्रकार का सम्मिश्रण नहीं है । इसीलिए सत् से सत्य शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसका अस्तित्व तीनों कालों में है वह सत् है वही सत्य है। सत्य शब्द तथ्य के अर्थ में भी व्यवहृत हुआ है। जो वस्तु जैसी देखी है, या सुनी व समझी है, उस वस्तु को जन-जन के हित के लिए उसी रूप में कहना, वचन के द्वारा उस तथ्य को प्रकट करना ही सत्य है। महर्षि पतंजलि ने व्यास-भाष्य में सत्य का लक्षण बताते हुए कहा—सत्यं यथार्थ वाङ्मनसी यथादृष्टं यथाश्रुतं ।
सत्य की महिमा
एक जिज्ञासु ने भगवान् महावीर से पूछा-इस विराट् विश्व में ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सारपूर्ण हो ! भगवान् ने कहा-..
१. 'सद्भ्यो हितं सत्यम् ।', आचार्य शांतिसूरि : उत्तराध्ययन टीका २. 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत:।', गीता ३. 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ।', तत्वार्थसूत्र, २६ ४. 'कालनये तिष्ठतीति सद् तदेव सत्यम् ।' ५. योगदर्शन, साधनपाद, सूत्र ३
जैन दर्शन मीमांसा
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