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आचार्य अगस्त्य सिंह स्थविर', आचार्य जिनदास महत्तर' और आचार्य हरिभद्र ने असत्य के चार कारणों का विश्लेषण करते हुए उन्हें उपलक्षणमात्र बताया है। क्रोध से मान को भी सूचित किया गया है। लोभ से माया को भी ग्रहण किया गया है। भय और हास्य का कथन करने से राग-द्वेष, कलह, अभ्याख्यान आदि कारणों का भी ग्रहण किया गया है। इस तरह अनेक वृत्तियों से असत्य बोला जाता है । दशकालिक की अगस्त्यसिह पूर्णि और जिनदास चूर्णि में मृषावाद के चार प्रकार बताये गये हैं
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(१) सद्भाव प्रतिषेध-जो है, उसके सम्बन्ध में यह कहना है कि यह नहीं है, जैसे—जीव, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि के सम्बन्ध में कहना कि ये नहीं हैं ।
(२) असद्भाव उद्भावना--जो नहीं है, उसके सम्बन्ध में कहना कि वह है, जैसे- आत्मा के सर्वगत और सर्वव्यापी न होने पर भी उसे उस प्रकार का बतलाना या आत्मा को श्यामाक, तन्दुल के समान कहना ।
(३) अर्थान्तर - एक वस्तु को अन्य बताना, जैसे- - गाय को घोड़ा कहना, घोड़े को गाय कहना आदि ।
(४) गर्हा – जैसे - काणे को काणा कहना, अन्धे को अन्धा कहना, नपुंसक को नपुंसक कहना। इस प्रकार के वचन बोलना जिससे सुनने वाले को पीड़ा हो ।
यदि कोई मानव दुर्भाग्य से काणा या अन्धा हो गया है, उसे एकाक्षी या अन्धा कहना, लौकिक दृष्टि से भले ही सत्य हो, पर मर्मकारी भाषा होने से वह सत्य नहीं है।" ऐसे कथन में व्यंग्य और घृणा रही हुई होती है। बोलने वाला व्यक्ति सुनने वाले के चित्त पर चोट करके हर्षित होता है। उसे हीन बताकर अपनी महानता प्रदर्शित करना चाहता है। उसके अन्तर्मानस में आसुरी वृत्ति अठखेलियाँ कर रही होती है । जिससे वह उस व्यक्ति को खिझाना व चिढ़ाना चाहता है । अन्धे का अन्धा और काणे को काणा कहना यह तथ्य हो सकता है पर सत्य नहीं । तथ्य हितकर ही हो यह बात नहीं है, वह अहितकर भी होता है। उसमें राग-द्वेष का सम्मिश्रण भी होता है, इसलिए वह सत्य भी असत्य है ।
सत्य कहो पर चुभने वाला न हो, जो असर करे पर हृदय में छेद न करे। वही सत्य बोलो, जो जन-जन का कल्याण करने वाला हो ।
सत्यं शिवं सुन्दरम्
सत्य के लिए भारतीय चिन्तकों ने कहा- 'वह सुन्दर हो, कल्याणकारी हो।' जो केवल सुन्दर ही है और कल्याणकारी नहीं है तो वस्तुतः वह सत्य नहीं है। इसीलिए सत्यं शिवं सुन्दरम् कहा गया है। सत्य एक ऐसी साधना है जिसे प्रत्येक व्यक्ति स्वीकार कर सकता है । व्यक्ति अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसे ग्रहण कर सकता है ।
स्कन्दपुराण में कहा है-- सत्य बोलो, प्रिय बोलो, किन्तु अप्रिय सत्य कभी मत बोलो। और प्रिय असत्य भी मत बोलो।" परहित में वा और मन का यथार्थ भाव ही सत्य है।" योगसूत्रकार पतंजलि ने कहा है-सत्य-प्रतिष्ठित व्यक्ति को वासिद्धि प्राप्त होती । है । यदि कोई व्यक्ति बारह वर्ष तक पूर्ण रूप से सत्यवादी रहे तो उसकी प्रत्येक बात यथार्थ होगी। एतदर्थ ही यजुर्वेद के ऋषि ने कहासत्य के पथ पर चलो।"
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१. स
चिजिनदाराणि पृष्ठ- १४०
३. दशवेकालिक, हारिभद्रीय टीका, पत्र- १४६
४. दशवेकालिक, अगस्त्य सिंह चूर्णि
५. दशवेकालिक, जिनदासचूर्णि, पृष्ठ- १४८
६. तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्तिय ।
वाहियं वावि रोगित्ति, तेणं चोरे ति नो वए ॥', दशवेकालिक, ७।१२
७. 'सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥', स्कन्दपुराण, ब्रा० छ०म० ६८८
८. ' पर हितार्थ वाङ्मनसो यथार्थत्वं ।'
६. 'सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।', योगसूत्र, २०३६
१०. 'ऋतस्य पन्था प्रेत !', यजुर्वेद, ७१४५
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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