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टीका ग्रन्थ
(१) तत्वार्थ राजवार्तिकभाष्य ( २ ) अष्टशती - देवागमवृत्ति ।
अकलंक की कृतियों में तत्त्वार्थसूत्र की टीका -- तत्त्वार्थ राजवार्तिक सबसे विस्तृत है। इसका आकार लगभग १६ हजार श्लोक प्रमाण है। इसके प्रथम और चतुर्थ अध्याय विशेष महत्वपूर्ण हैं। इनमें मोक्ष और जीवस्वरूप सम्बन्धी विभिन्न विचारों का परीक्षण प्राप्त होता है । अष्टशती समंतभद्र कृत आप्त-मीमांसा की व्याख्या है। नाम के अनुसार इसका विस्तार आठ सौ श्लोक प्रमाण है । लघीयस्त्रय में प्रमाण, नय और प्रवचन में तीन प्रकरण हैं। न्यायविनिश्चय में भी तीन प्रकरण हैं। इनमें प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों का विवेचन है । प्रमाणसंग्रह में प्रकरण हैं। जिनमें प्रमाण संबंधी विभिन्न विषयों की चर्चा है। सिद्धिविनिश्चय में १२ प्रकरण हैं। इनमें प्रमाण, नय, जीव, सर्वज्ञ आदि विषयों का विवेचन है। इन चार ग्रन्थों में मूल श्लोकों के साथ गद्य में स्पष्टीकरणात्मक अंश भी जोड़ा है।
जैनाचार्यों में अकलंक के ग्रन्थों का बड़ा आदर हुआ। अष्टशती पर विद्यानन्द ने लघीयस्त्रय पर अभयचंद्र और प्रभाचंद्र ने, न्यायविनिश्चय पर वादिराज ने तथा प्रमाणसंग्रह और सिद्धिविनिश्चय पर अनन्तवीर्य ने विस्तृत व्याख्याएं लिखी हैं । माणिक्यनन्दि का परीक्षामुख अकलंक के विचारों का सूत्रबद्ध रूप प्रस्तुत करता है ।
हरिभद्रसूरि का जन्म चित्तौड़ के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। कुलक्रमागत वेदादि का अध्ययन पूर्ण होने पर ज्ञान के गर्व से इन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि जिसका वचन मैं न समझ सकूं उसका शिष्यत्व स्वीकार करूंगा । एक बार याकिनी महत्तरा नामक जैन साध्वी आगमों का पाठ कर रही थी। उनकी प्राकृत गाथा का अर्थ हरिभद्र नहीं समझ सके और प्रतिज्ञानुसार उनकी सेवा में शिष्य रूप में उपस्थित हुए । साध्वी ने अपने गुरु जिनभद्रसूरि से उनकी भेंट कराई । उनसे मुनिदीक्षा ग्रहण कर आगमों का विधिवत् अध्ययन कर लेने के उपरान्त हरिभद्र को आचार्य पद दिया गया ।
विस्तार, विविधता और गुणवत्ता इन तीनों दृष्टियों से हरिभद्र की रचनायें जैन साहित्य में महत्वपूर्ण हैं। परम्परानुसार इनके प्रत्थों की कुल संख्या १४४४ कही गई है। आपने आवश्यक, प्रज्ञापना, नन्दी, अनुयोगद्वार ओपनियंक्ति, दशकालिक जीवाभिगम, जम्मूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि आगम ग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएं लिखी हैं जिससे संस्कृतभाषी विद्वानों के लिए इन आगमों का अध्ययन सरल हो गया है। अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश शास्त्रवातसमुच्चय आदि ग्रन्थों में विभिन्न भारतीय दर्शनों के तत्वों का जैनदृष्टि से परीक्षण कर हरिभद्र ने तत्वों को तर्कशास्त्र के अनुकूल सिद्ध किया। षड्दर्शनसमुच्चय नामक ग्रन्थ में उन्होंने जीन, जगत् और धर्म सम्बन्धी भारतीय दर्शनों की मान्यताओं का प्रामाणिक रूप में संकलन किया है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि हरिभद्रसूरि ने भारतीय साहित्य और विशेष रूप से जैन साहित्य के प्रत्येक अंग को पुष्ट बनाने में अपना योगदान दिया है।
अकलंक और हरिभद्रसूरि का समय दर्शनशास्त्र के इतिहास में विप्लव का युग था । शास्त्रार्थों की धूम मची हुई थी। बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्ति के उदय से बौद्धदर्शन उन्नति की पराकाष्ठा पर था । धर्मकीर्ति ने अपने प्रबल तर्कबल से वैदिक दर्शनों पर प्रचण्ड प्रहार किए। जैन दर्शन भी इनके आक्षेपों से नहीं बचा था। प्रतिपक्षी विद्वानों द्वारा अनेकान्तवाद पर अनेक प्रहार होने लगे थे। कई लोग अनेकान्त को संशय कहते थे । कोई केवल छत का रूपान्तर कहते थे और कोई इसमें विरोध, अनवस्था आदि क्षेत्रों का प्रतिपादन करके इसका खण्डन करते थे। ऐसे तर्कप्रधान समय में सम्पूर्ण दर्शनों का अनेकान्तवाद में समन्वय करके उस पर कहना या लिखना साधारण कार्य नहीं था। परन्तु अकलंक और हरिभद्रसूरि इस असाधारण कार्य को सम्पन्न करने में अपनी अद्भुत क्षमता और प्रकाण्ड - पाण्डित्य से सफल हुए । इन्होंने स्याद्वाद के एकएक विषय को लेकर नाना प्रकार से ऊहापोहात्मक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया। इन्होंने गम्भीर तर्कपद्धति का आलम्बन लेकर स्याद्वाद पर प्रतिवादियों द्वारा आरोपित दोषों का निराकरण करते हुए नाना-दृष्टि बिन्दुओं से अनेकान्तवाद का जो विवेचन और समर्थन किया है वह निश्चय ही जैन दर्शन के इतिहास में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करने की क्षमता रखता है।
यद्यपि अनेक मुद्दों में जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन समानतन्त्रीय थे । किन्तु क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि बौद्धवादों का दृष्टिकोण एकान्तिक होने से दोनों में स्पष्ट विरोध था । इसीलिए इनका प्रबल खंडन अकलंक और हरिभद्र के ग्रन्थों में पाया जाता है। इनके ग्रन्थों का बहुभाग बौद्ध दर्शन के खण्डन से भरा हुआ है। धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक और प्रमाणविनिश्चय आदि का खण्डन अकलंक के सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और अष्टशती आदि ग्रन्थों में किया गया है। हरिभद्र के शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका और अनेकान्तवादप्रवेश आदि में बौद्ध दर्शन की प्रखर आलोचना है। यहां एक बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि जहां वैदिक दर्शन ग्रन्थों में अन्य मतों का मात्र खण्डन ही खण्डन है। वहां जैन दर्शन के ग्रन्थों में इतर मतों का नय और स्याद्वाद पद्धति से विशिष्ट समन्वय किया गया है। शास्ववार्तासमुच्चय षड्दर्शनसमुच्चय और धर्मसंग्रहणी आदि ग्रन्थ इसके विशिष्ट उदाहरण हैं।
जय धर्मकीर्ति के शिष्य देवेन्द्रमति, प्रभाकरगुप्त, कर्णकगोमी शांतरक्षित और अचंट आदि अपने प्रमाणवार्तिकटीका प्रमाणवार्तिका
१. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्र की व्याख्या ।
जैन दर्शन मीमांसा
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