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उत्पाद-व्यय और उत्पाद-व्यय-रहित ध्रौव्य कहीं भी उपलब्ध नहीं हो सकता।
. वस्तु का स्वरूप सर्वात्मक नहीं है, अतः स्वरूप से उसकी विधि और पररूप से उसका निषेध प्राप्त होता है। उत्पाद और व्यय का क्रम निरन्तर चलता रहता है, अतः उत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से वस्तु की विधि और अनुत्पन्न या विगत पर्याय की अपेक्षा से उसका निषेध प्राप्त होता है । स्याद्वाद का सिद्धान्त यह है कि विधि और निषेध वस्तुगत धर्म हैं। हम अग्नि का प्रत्यक्ष करते हैं, इसलिए उसकी विधि का अर्थ होता है कि अमुक देश में अग्नि है। हम धूम के द्वारा अग्नि का अनुमान करते हैं तब साधक हेतु मिलने पर अमुक देश में उसकी विधि
और बाधक हेतु मिलने पर उसका निषेध करते हैं किन्तु स्याद्वाद का विधि-निषेध वस्तु के देश-काल से संबद्ध नहीं है। यह उसके स्वरूपनिर्धारण से संबद्ध है। अग्नि जब कभी और जहां कहीं भी होता है वह अपने स्वरूप से होता है, इसलिए उसकी विधि उसके घटकों पर निर्भर है और उसका निषेध उन तत्वों पर निर्भर है जो उसके घटक नहीं हैं। वस्तु में विधि और निषेध-ये दोनों पर्याय एक साथ होते हैं । विधिपर्याय होता है इसलिए वह अपने स्वरूप में रहता है और निषेध-पर्याय होता है, इसलिए उसका स्वरूप दूसरों से आक्रान्त नहीं होता। यही वस्तु का वस्तुत्व है। इस स्वरूपगत विशेषता की सूचना ‘स्यात्' शब्द देता है।
विभज्यवाद' और भजनावाद स्याद्वाद के नामान्तर हैं। भगवान् महावीर ने स्वयं भी अनेक प्रश्नों के उत्तर विभज्यवाद की पद्धति से दिए हैं। जयन्ती ने पूछा-'भंते सोना अच्छा है या जागना अच्छा है।' महावीर ने कहा 'जयन्ती ! कुछ जीवों का सोना अच्छा है
और कुछ जीवों का जागना अच्छा है। जयन्ती ने पुनः प्रश्न किया—'भंते' यह कैसे ?' महावीर का उत्तर था 'जो जीव अधर्मी हैं उनका सोना अच्छा है और जो धर्मी हैं, उनका जागना अच्छा है।' सोना ही अच्छा है या जागना ही अच्छा है, यह एकांगी उत्तर होता। इसलिए महावीर ने प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया, एकांगी दृष्टि से नहीं दिया।
भजनावाद के अनुसार द्रव्य और गुण के भेद एवं अभेद का एकांगी नियम स्वीकार्य नहीं । उसमें भेद और अभेद दोनों हैं। 'द्रव्य से गुण अभिन्न है', यदि इस नियम को स्वीकृति दी जाय, तो द्रव्य और गुण दो नहीं रहते, एक हो जाते हैं। फिर 'द्रव्य में गुण'- इस प्रकार की वाक्य-रचना संभव नहीं। द्रव्य से गुण भिन्न है, यदि इस नियम को माना जाय, तो यह गुण इस द्रव्य का है-इस प्रकार की वाक्य-रचना नहीं की जा सकती।
वस्तु स्वभावत: अनेकधर्मात्मक है। जो वस्तु मधुर प्रतीत है, वह कटु भी है, जो मृदु प्रतीत होती है, वह कठोर भी है। जो दीपक क्षण-क्षण बुझता और टिमटिमाता दिखाई पड़ता है, उसमें एकान्तक्षणिकता ही नहीं, द्रव्य रूप से स्थिरता भी है। 'जो द्वन्द्व (युगल) विरोधी प्रतीत होते हैं, उनमें परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-इस स्थापना के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त अनन्त विरोधी युगलों को युगपत् रहने की स्वीकृति देता है। पर इन विरोधी युगलों को एक साथ व्यक्त नहीं किया जा सकता। इनके युगपत् प्रतिपादन के लिए भाषा में ऋमिकता और सापेक्षता चाहिए । यह सापेक्ष कथन या प्रतिपादन शैली स्याद्वाद है, जिसके अस्ति (विधि), नास्ति (निषेध) और अवक्तव्य आदि के भेद से अधोलिखित सात विकल्प हैं :
१. स्याद् अस्ति एव-किसी अपेक्षा से है ही। २. स्याद् नास्ति एव-किसी अपेक्षा से नहीं ही है। ३. स्याद् अस्ति एव स्याद् नास्ति एव-किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से नहीं ही है। ४. स्याद् अवक्तव्य एव-किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। ५. स्याद् अस्ति एव स्याद् अवक्तव्य एव-किसी अपेक्षा से है ही और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। ६. स्याद् नास्ति एव स्याद् अवक्तव्य एव—किसी अपेक्षा से नहीं ही है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य ही है। ७. स्याद् अस्ति एव स्याद् नास्ति एव स्याद् अवक्तव्य एव-किसी अपेक्षा से है ही, किसी अपेक्षा से नहीं ही है और किसी अपेक्षा
से अवक्तव्य ही है।
ये वचन विकल्प सप्तभंगी के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें प्रथम चार मूल भंग है और अन्तिम तीन इन्हीं के विस्तार है। मूल भंगों के स्पष्टीकरण के लिए एक व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत है---
१. 'स्वपरात्मोपादानापोहनव्यवस्थापाद्य हि वस्तुनो वस्तुत्वम्', तत्त्वार्थवार्तिक, ११६ २. मुनि नथमल: जैन न्याय का विकास, पृ०६७ ३. सूयगडो, ११४॥२२ ४. कसायपाहुड, भाग १, पृ० २८१ ५. भगवई, १२१५३-५४ ६. मुनि नथमलः जैन न्याय का विकास, पृ०६८ ७. 'सप्तभिः प्रकारर्वचनविन्यास: सप्तभंगी', स्याद्वादमञ्जरी
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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