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यदि कोई भी वचन प्रयोग स्याद्वाद से सम्बन्धित है तो वह वचन निश्चयात्मक है ।
प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य. स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की दृष्टि से सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव की अपेक्षा से असत् है इस प्रकार एक ही पदार्थ के सत् और असत् होने में कोई विरोध नहीं है।
स्याद्वाद और सप्तभंगी इन दोनों में व्याप्य व्यापक भाव सम्बन्ध रहा है । स्याद्वाद व्याप्य है और सप्तभंगी व्यापक है। यहां तक कि प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक है, एतदर्थ सप्तभंगी के स्थान पर अनन्तभंगी क्यों नहीं स्वीकार की जाये। उक्त प्रश्न चिंतनीय है, इसका समाधान भी अवश्य है । प्रत्येक वस्तु में अनन्त अनन्त धर्म विद्यमान हैं और हर धर्म को संलक्ष्य में रखकर एक-एक सप्तभंगी बनती है, इससे यह स्पष्ट है कि अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तभंगी होती हैं । यदि एक धर्म का ही भंग होता है तो अनन्त धर्मों की अनन्त भंगी हो सकती हैं पर यह कथन उचित नहीं है। वास्तविक स्थिति यह है कि एक धर्माश्रित एक सप्तभंगी है, इसलिए अनन्त धर्मों की अनन्त सप्तमंगियाँ संभव हैं।
सप्तभंगीवाद में प्रत्येक मंग स्वधर्म की प्रधानता होती है और दूसरे धर्म गौण हो जाते हैं, प्रधानता और अप्रधानता इन दोनों की विवक्षा के लिए स्यात् का प्रयोग होता है । स्यात् पद जहां विवक्षित धर्म का प्रमुख रूप से उपस्थापन करता है, वहां अविवक्षित धर्म का पूर्णरूपेण निषेध न कर उसका गौण रूप से उपस्थान कर देता है ।
स्याद्वाद सिद्धान्त में पदार्थ के स्वरूप का विवेचन सापेक्ष दृष्टि से किया जाता है । सातों भंगों का जो आधार है वह काल्पनिक नहीं है। वरन् वस्तु का विविध और व्यापक रूप ही है । सप्तभंगी में वस्तु के अस्तित्व और नास्तित्व के सम्बन्ध में गम्भीर विचारणा की गई है । इसमें जो अस्तित्व और नास्तित्व का विधान है, वह वास्तव में स्वचतुष्टय और परचतुष्टय के आधार पर है।
ये सातों ही वचन पद्धतियां अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं और उतनी सार्थकता रखती हैं। यह सच हैं कि प्रत्येक भंग अलगअलग रूप में वस्तुमात्र के एक अंश को ही प्रकट करता है। उसके पदार्थ के संपूर्ण स्वरूप को नहीं इसीलिए जैन दर्शन का उन्मुक्त घोष है कि इन सप्तवचन-पद्धतियों में से प्रतिपादन कर्त्ता अपने मंतव्य को अभिव्यक्त करने के लिए उस वचन-पद्धति का उपयोग करता है, उसके पूर्व वह स्यात् का प्रयोग अवश्य करे। जिससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि वस्तु की जो स्थिति है, उसमें अन्य सम्भावनाएं हैं।
ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं, तब वे प्रमाणवाक्य कहलाते हैं और जब वे विकलादेशी होते हैं तब नयवाक्य कहलाते हैं । इसी प्रमुख आधार पर सप्तभंगी का वर्गीकरण दो प्रकार से हुआ - प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी ।
यह तो पूर्णतः स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु-तत्व में अनन्त - अनन्त गुण-धर्म विद्यमान हैं। किसी भी एक वस्तु का सम्पूर्ण रूप से परिज्ञान करने के लिए उन अनन्त शब्दों का प्रयोग करना अतीव आवश्यक है, किन्तु यह सम्भव ही नहीं है । क्योंकि अनन्त शब्दों का प्रयोग करने के लिए भी अनन्तकाल चाहिए। किन्तु, मानव का जो जीवन काल है, वह वास्तव में परिमित है । अनन्तकाल नहीं है, इस पर से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी मनुष्य अपने समग्र जीवन में एक भी पदार्थ का पूर्णतया प्रतिपादन नहीं कर सकता। इसलिए एक शब्द के द्वारा ही संपूर्ण अर्थ का परिबोध करना होता है। यह तथ्य ज्ञातव्य है कि बाह्य दृष्टिकोण से ऐसा भी परिज्ञात होता है कि वह एक ही धर्म का प्रतिपादन कर देता है । किन्तु, प्राधान्यवृत्ति अर्थात् अभेदोपचार की दृष्टि से एक शब्द के द्वारा एक धर्म का कथन होने पर भी अखंड रूप में अनंतधर्मात्मक संपूर्ण गुण धर्मों का युगपत् प्रतिपादन हो जाता है। एक ही शब्द से अनन्त गुण पदार्थों के पिण्ड स्वरूप संपूर्ण वस्तु का युगपत् परिज्ञान हो जाता है । इसको प्रमाण-सप्तभंगी कहते हैं ।
इस विराट् विश्व की प्रत्येक वस्तु गुण और पर्याय स्वरूप है । गुण और पर्याय इन दोनों का परस्पर भेदाभेद सम्बन्ध है । जिस समय में भेद दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का कथन किया जाता है । द्रव्य पदार्थ को गौण और पर्याय स्वरूप अर्थ को मुख्य माना जाता है। इस को नय-सप्तभंगी कहते हैं। नय सप्तभंगी में भेदवृत्ति या भेदोपचार का कथन किया जाता है ।
इन दोनों में मुख्य रूप से अन्तर यह है कि नय विकलादेश है और प्रमाण सकलादेश है। जिस समय प्रमाण सप्तभंगी के द्वारा पदार्थ का युगपत् परिबोध होता है, उस समय गुण और पर्यायों में काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार आदि अभेदवृत्ति का उपचार होता है और अस्ति या नास्ति प्रभृति किसी भी पद से गुणपर्याय स्वरूप वस्तु का युगपत् परिज्ञान होता है। जिस समय नयसप्तभंगी के द्वारा वस्तुतत्व का अधिगम किया जाता है, उस समय गुण पर्याय में काल आत्मरूप अर्थ आदि के द्वारा भेद का उपचार होता है और अस्तित्व नास्तित्व प्रभृति किसी शब्द के द्वारा ही द्रव्यगत अस्तित्व नास्तित्व आदि किसी एक विवक्षित गुण पर्याय का प्रमुख रूप से क्रमशः प्रतिपादन होता है।
प्रमाण और नय इन दोनों की जो विवक्षा है, वह वस्तुतः पदार्थगत अनेकांत के परिबोध के लिये है और सप्तभंगी की जो व्यवस्था है वह तत्प्रतिपादक वचन-पद्धति को समझने के लिए है। स्याद्वाद में सप्तभंगी का गंभीर रहस्य रहा हुआ है।
प्रस्तुत विषय अपने आप में गंभीरता को लिए हुए हैं, तथापि विषय की गंभीरता को सुस्पष्ट करने के लिए उस विविध पहलू पर पर्याप्त प्रकाश डालने का विनम्र प्रयत्न चल रहा है कि स्याद्वाद सिद्धान्त में विविध विवक्षाओं से पदार्थ की सत्यता का व्याख्यान किया
आचार्यरत्न भी देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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