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देव व धर्मसेन (सुधर्म) नाम के ग्यारह अंग तथा दस पूर्वधारी आचार्य हुए, जिनका कुल समय १८३ वर्ष था। इस अवधि तक महावीरपरिनिर्वाण के पश्चात् ३४५ वर्ष व्यतीत हो चुके थे।
दिगम्बर-परम्परा में उपर्युक्त स्थिति के पश्चात् आगमों के ह्रास से सम्बद्ध दो दृष्टियां दृष्टिगोचर होती हैं। एक-तिलोयपण्णति, हरिवंशपुराण, धवला, कषायपाहुड तथा महापुराण पर आधारित है तथा दूसरी–धवला (नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली) पर। पहली दृष्टि के अनुसार महावीर-निर्वाण के. ३४५ वर्ष पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्र वसेन व कंस नाम के एकादशांगधारी आचार्य हुए, जिनका काल २२० वर्ष है। इसके बाद सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य नामक आचारांगधारी आचार्य हुए। इनका काल ११८ वर्ष है। इस प्रकार महावीर-निर्वाण के कुल ६८३ वर्ष पश्चात् आगम-परम्परा विच्छिन्न हो गई।
दूसरी दृष्टि के अनुसार महावीर-निर्वाण के ३४५ वर्ष पश्चात् नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्र वसेन व कंस नामक एकादशांगधारी; सुभद्र नामक दशांगधारी; यशोभद्र नामक नवांगधारी; भद्रबाहु द्वितीय तथा लोहाचार्य नामक अष्टांगधारी आचार्य हुए। इन सब का काल २२०वर्ष है। तदनन्तर विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त एवं अर्हदत्त नामक एकांगधारी आचार्य हुए। ये सब समकालीन थे, अतः इनका काल कुल २० वर्ष माना जाता है। यह काल परवर्ती एक अंग के अंशधारी आचार्यों के काल में अन्तर्भूत है । हीरालाल जैन के अनुसार इन आचार्यों का मूल पट्टावली में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता। इन आचार्यों के बाद अर्हद्बलि, धरसेन, पुष्पदन्त तथा भूतबलि नामक एक अंग के अंशधारी आचार्य हुए। इनका तथा विनयदत्त आदि एकांगधारी आचार्यों का सम्मिलित काल कुल ११८ वर्ष है। एवंविध महावीर-निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् आगम-परम्परा लुप्त हो गई।
अंगबाह्य-साहित्य-दिगम्बरों के अनुसार उपर्युक्त द्वादशांगों (अंगप्रविष्ट-साहित्य) के अतिरिक्त स्थविरों ने चौदह अंगबाह्य आगमों की रचना भी की थी। उपलब्ध जैन साहित्य में दृष्टिबाद के पाँच भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है—परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चलिका। इनमें से पूर्वगत के चौदह भेद माने गए हैं--(१) उत्पादपूर्व, (२) अग्रायणी, (३) वीर्यानुवाद, (४) अस्तिनास्तिप्रवाद, (५) ज्ञानप्रवाद, (६) सत्यप्रवाद, (७) आत्मप्रवाद, (८) कर्मप्रवाद, (६) प्रत्याख्यान, (१०) विद्यानुवाद, (११) कल्याणवाद, (१२) प्राणावाय, (१३) क्रियाविशाल और (१४) लोकबिन्दुसार । इन्हीं पूर्वो के आधार पर रचित आगमों को अंगबाह्य-साहित्य कहा गया है, जो इस प्रकार हैं- (१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) वन्दना, (४) प्रतिक्रमण, (५) वैनयिक, (६) कृतिकर्म, (७) दशवैकालिक, (८) उत्तराध्ययन, (६) कल्पव्यवहार, (१०) कल्प्याकल्प्य, (११) महाकल्प्य, (१२) पुण्डरीक, (१३) महापुण्डरीक तथा (१४) निषिद्धि का । इन सबका भी द्वादशांगों की भांति लोप माना गया है।
चैत्यवासी सम्प्रदाय सम्मत आगम-साहित्य-श्वेताम्बर चैत्यवासी अथवा मूत्तिपूजक सम्प्रदाय में मान्यता-प्राप्त ४५ आगमों का विवरण इस प्रकार है
अंग (११)-पूर्ववत् ।
उपांग (१२)-(१) औपपातिक, (२) राजप्रसेनजित्क अथवा राजप्रश्नीय, (३) जीवाजीवाभिगम, (४) प्रज्ञापना, (५) सूर्यप्रज्ञप्ति, (६) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, (७) चन्द्रप्रज्ञप्ति, (८) निरयावलिका, (६) कल्पावतंसिका, (१०) पुष्पिका, (११) पुष्पचला तथा (१२) वृष्णिदशा [(८-१२) निरयावलिकाश्रुतस्कन्ध] ।
प्रकीर्णक (१०)-(१) चतुःशरण, (२) आतुरप्रत्याख्यान, (३) भक्तपरिज्ञा, (४) संस्तार, (५) तंडुलबैचारिक, (६) चन्द्रवेध्यक, (७) देवेन्द्रस्तव, (८) गणिविद्या, (६) महाप्रत्याख्यान तथा (१०) वीरस्तव ।
छेवसूत्र (६)-(१) आचारदशा अथवा दशा, (२) कल्प या बृहत्कल्प, (३) व्यवहार, (४) निशीथ, (५) महानिशीथ तथा (६) जीतकल्प । दिगम्बर-मान्य अंगबाह्य आगमों में से प्रथम छ: (सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक तथा कृतिकर्म) का अन्तर्भाव यहां परिगणित कल्प, व्यवहार और निशीथ सूत्रों में माना गया है।
चूलिकासूत्र (२)-(१) नन्दी तथा (२) अनुयोगद्वार । मूलसूत्र (४)-(१) उत्तराध्याय, (२) दशवकालिक, (३) आवश्यक तथा (४) पिण्डनियुक्ति ।
स्थानकवासी व तेरापंथ सम्प्रदाय सम्मत आगम-साहित्य' – स्थानकवासी और तेरापंथ सम्प्रदाय में मान्यता प्राप्त ३२ आगमों का विवरण इस प्रकार है
१. कषायपाहुड, प्रकरण १७, पृ० २५ २. बेचरदास दोशी : जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग १), वाराणसी, १९६६, पृ० २६-२८ ३. द्रष्टव्य-पू०२ ४. बेचरदास दोशी : जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग १), वाराणसी, १९६६, पृ० २७-२८
जैन दर्शन मीमांसा
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