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से स्वमत-स्थापक ग्रन्थों की रचना भी होने लगी। इस युग के प्रमुख प्रमुख आचार्यों का विवरण इस प्रकार है
उमास्वाति -- दिगम्बर-सम्प्रदाय में इनका नाम उमास्वामी माना जाता है। नन्दिसंघ की पट्टावली, विद्वज्जनबोधक में उद्धृत श्लोक और इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के आधार पर फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने उमास्वाति का समय प्रथम द्वितीय शताब्दी ई० माना है । ' उमास्वाति पहले विद्वान् हैं, जिन्होंने विविध आगम-ग्रन्थों में बिखरे हुए जैन तत्त्वज्ञान को योग, वैशेषिक आदि दर्शन-ग्रन्थों के समान सूत्रबद्ध किया और उसे तत्त्वार्थाधिगम, तत्त्वार्थ सूत्र या अर्हत्प्रवचन के रूप में प्रस्तुत किया। इसके पूर्व प्रायः समस्त जैन वाङ्मय अर्धमागधी प्राकृत में था । सम्भवतः उन्होंने सर्वप्रथम यह अनुभव किया कि अब विद्वत्समुदाय की प्रधान भाषा संस्कृत बन रही है, अतः संस्कृत में लिखने पर ही उसका ध्यान जैन दर्शन की ओर जा सकेगा। उमास्वाति-कृत तत्त्वार्थ सूत्र के मुख्य रूप से दो पाठ पाये जाते हैं एक, दिगम्बर और दूसरा, श्वेताम्बर । दिगम्बर-परम्परा के अनुसार तत्त्वार्थसूत्र के दस अध्यायों की सूत्र - संख्या इस प्रकार है---
३३ ÷५३+३६+४२+४२+२७÷३६+२६+४७+६= ३५७
श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार यह संख्या इस प्रकार है'
३५+५२+१८ + ५३+४४ + २६÷३४ २६+४६/७
३४४
तत्त्वार्थ सात हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । सम्यग्दर्शन के विषय रूप से इन सात तत्त्वार्थों का प्रस्तुत सूत्र ग्रन्थ में विस्तार के साथ निरूपण किया गया है।
समन्तभद्र इनका समय स्पष्टरूपेण निश्चित नहीं हो पाया है विक्रमीय द्वितीय तृतीय शताब्दी का स्वीकार करते हैं। सतीशचन्द्र विद्याभूषण आठवीं शती ई० का स्वीकार किया है। ये प्रसिद्ध स्तुतिकार थे। इन्होंने आप्त की स्तुति करने के प्रसंग से आप्तमीमांसा युक्त्या और बृहत्स्वयंभू स्तोत्र आदि ग्रन्थों की रचना की जिनस्तुतिशतक और रत्नकरण्ड भी इन्हीं की रचनाएं मानी जाती हैं। इन प्रश्यों में इन्होंने अनेकान्त का स्थापन, स्याद्वाद का लक्षण, सुनय दुर्नय की व्याख्या एवं अनेकान्त में अनेकान्त लगाने की प्रक्रिया बताई। इसके अतिरिक्त स्वपरावभासक बुद्धि को प्रमाण का लक्षण माना तथा अज्ञान - निवृत्ति, हान, उपादान और उपेक्षा को प्रमाण का फल बताया। सिद्धसेन पं० खनाल एवं बेचरदास जी ने सिद्धसेन को विक्रमीय पांचवीं शती का आचार्य माना है।" सम्मतितर्क, न्याया बतार और कुछ द्वात्रिंशिकाएं इनकी कृतियां हैं। कुछ और साहित्य भी उपलब्ध हो रहा है। सन्मतितर्क प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । इन ग्रन्थों में इन्होंने नय, अनेकान्त आदि विषयों का गम्भीर विवेचन तो किया ही है। साथ ही, प्रमाण-लक्षण में बाधविवजित पद देकर उसे संशोधित किया । इन्होंने प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम तीन भेद किए। इसके अतिरिक्त अनुमान और हेतु का लक्षण करके दृष्टान्त, दूषण आदि परार्थानुमान के समस्त अवयवों का निरूपण भी किया है।
मल्लवादी इन्हें विक्रमीय पांचवीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है । ये प्रबल तार्किक थे। इनके द्वारा रचित नयचक्र ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, इसका पूरा नाम द्वादशार नयचक्र है। मूल ग्रन्थ अनुपलब्ध है, किन्तु सिंहगणि क्षमाश्रमण-कृत उसकी टीका अवश्य मिलती है। नयचक्र में नयों के गुण और दोष दोनों की समीक्षा की गई है। वस्तुतः इसमें जैनेतर मतों का ही नयों के रूप में वर्णन किया गया है । अभिप्राय यह है कि जैनेतर मतों को ही नय मानकर समग्र ग्रन्थ की रचना की गई है ।
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण - ये विक्रमीय छठी सातवीं शती के आचार्य हैं।" ये बहुत ही समर्थ और आगमकुशल विद्वान् थे । इनका विशेषावश्यकभाष्य नाम का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें ये अनेकान्त और नय आदि का विवेचन करते हैं तथा प्रत्येक प्रमेय में उसे लगाने की पद्धति भी बताते हैं। इन्होंने लौकिक इन्द्रिय-प्रत्यक्ष जो आगमिक मान्यता के अनुसार परोक्ष ज्ञान था, की नोक-व्यवहार के निर्वाह के
कैलासचन्द्र शास्त्री, महेन्द्रकुमार जैन आदि विद्वान उन्हें इन्हें छठी शताब्दी ई० का मानते हैं। डा० पाठक ने तो इन्हें
१. फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री : सर्वार्थसिद्धि की प्रस्तावना, पृ० ७४-७५
२. वही, पृ० २२
३. वही
४. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, पृ० २६६
५. महेन्द्रकुमार जैन जैन दर्शन, पृ० २०
६. Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Jain Logic, पृ० १८२
७. Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute ( Vol. XI ), पृ० १४e
८.
सन्मतितर्क प्रकरण की प्रस्तावना, पृ० ४३
8. द्रष्टव्य— Prof. M.A. Dhaky : Some Less known Verses of Siddhasena Divākara, पृ०१६५-१६८
१०. कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैन धर्म, पृ० २७२
११. वही तथा Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Indian Logic, पृ० १८१
जैन दर्शन मीमांसा
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