________________
संघर्ष के युग में अकलंक-प्रभृति जैनाचार्यों ने भी जैन दर्शन के संरक्षणार्थ पूर्वपक्ष की स्थापना और उसके निरसन द्वारा जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। केवल षड्दर्शन और बौद्ध दर्शन ही नहीं, अपितु व्याकरण-दर्शन', चार्वाक-दर्शन आदि के सन्दर्भ में भी जैनाचार्यों ने उपर्युक्त विधि अपनायी। इसी कारणवश यह युग न्याय-प्रमाण-स्थापन युग कहलाया। इस युग की प्रवृत्ति से दार्शनिक साहित्य के अतिरिक्त पुराण", महाकाव्य तथा तत्कालीन अभिलेख' भी प्रभावित हुए।
(४) नव्य-न्याय युग
यह युग विक्रमीय सत्रहवीं शताब्दी और उसके बाद का है। इस युग में अब तक के दार्शनिक विचारों को नव्य ढंग से परिष्कृत करने का महान् प्रयत्न किया गया। इस युग के प्रमुख आचार्यों का विवरण निम्नलिखित है
यशोविजय-इनका काल सत्रहवीं शताब्दी है। इन्होंने ही जैन दार्शनिक परम्परा में नव्यन्याय की नींव रखी। इनकी उपलब्ध कृतियों में अष्टसहस्रीविवरण, अनेकान्तव्यवस्था, ज्ञानबिन्दु, जैनतर्कभाषा, शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका, न्यायखण्डखाद्य, अनेकान्तप्रवेश, न्यायालोक, गुरुतत्वविनिश्चय आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं।
इनके अतिरिक्त विमलदास की सप्तभंगीतरंगिणी और अठारहवीं शती में यशस्वतसागर की सप्तपदार्थी आदि रचनाएं इस युग की महत्त्वपूर्ण रचनाएं हैं।
भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में गंगेशोपाध्याय के प्रवेश के साथ तेरहवीं शताब्दी में नव्य-न्याय का युग प्रारम्भ होता है। गंगेश द्वारा प्रवर्तित नव्य-न्याय-शैली के प्रकाश में सभी दार्शनिकों ने अपने-अपने दर्शन को परिष्कृत किया। परन्तु जैन परम्परा में यशोविजय से पूर्व इस प्रकार का प्रयास किसी भी आचार्य ने नहीं किया। फलस्वरूप १३वीं से १७वीं शताब्दी तक भारतीय दर्शनों की विचारधारा का जो नया विकास हुआ, जैन-दार्शनिक-साहित्य उससे वंचित रहा। १७वीं शताब्दी में यशोविजय ने काशी से सर्वशास्त्र-वैशारद्य प्राप्त कर इसका प्रथम प्रयास किया और जैन दर्शन में नव्य-न्याय-शैली से अनेक रचनाएं करके अनेकान्तवाद, जैन-प्रमाणशास्त्र तथा नयवाद को नूतन शैली में पुनःप्रतिष्ठापित किया।
----बिशनस्वरूप रुस्तगी
संस्कृत विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-११०००७
१. द्रष्टव्य-डॉ० लालचन्द जैन : शब्दाद्वैतवाद-जन दृष्टि, पृ० ११५-१३१ २. द्रष्टव्य--डॉ० उदयचन्द जैन : आदिपुराण में जैन दर्शन के तत्व, पृ० १३२-१३६ ३. द्रष्टव्य-डॉ० मोहनचन्द : भारताय दर्शन के सन्दर्भ में जैन महाकाव्यों द्वारा विवेचित मध्यकालीन जैनेतर दार्शनिकवाद, १० १५१-१६० ४. द्रष्ट व्य-श्री जगबीर कौशिक : श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में जैन-तत्त्व-चिन्तन, पृ० १०१-१०४ ५. Satish Chandra Vidyabhusana : A History of Indian Logic, पृ० २१७ ६. महेन्द्रकमार जैन : सिद्धिविनिश्चय टीका (भाग १) की प्रस्तावना, पृ० ४३ ७. महेन्द्रकुमार जैन : जैन दर्शन, पृ०२६
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org