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8. गर्वोन्माद सस्मित कवि ने टिट्टिभ से कहा"हे कवे ! ऐसी कल्पना मत कर कि मैं गर्वोन्मत्त हूं। रात्रि में जब गहन अन्धकार छा जाता है सारा जगत् निश्चिन्त सुख से सोता है ऐसे में कुछ अनिष्ट भी हो सकता है यदि ऐसे में निरालम्ब आकाश नीचे गिर पड़े मैं सोचता हूं उसे कौन झेलेगा ? इसलिए मैं अपने पैरों को ऊपर किए सोता हूँ कवे ! विश्वास कर यह मेरा गर्वोन्माद नहीं।"
१०. सुरक्षा एक तने पर अनेक शाखाएं हैं एक शाखा पर अनेक फल ! एक फल में अनेक बीज होते हैं बीज फिर कभी वृक्ष बनेंगेइस उम्मीद से फलों ने उन्हें अपने उदर में छिपा रखा है !
६. आत्म-बलिदान जेठ के धधकते महीने में धूप बह रही थी विकराल बन कर ! एक पनिहारिन ने जल का भरा घड़ा काठ की पट्टी पर टिका दिया घड़े के नीचे था गरम लू से सन्तप्त! पानी का प्यासा रेत का ढेर ! कभी कभी बन्धन असह्य होता है ! बलिदान का भाव मुखरित हुआ मैने देखा-जल बिन्दु टपका प्यासी रेत ने उसे सोख लिया फिर दूसरा बिन्दु टपका पर वह भी न बच सका! मैं नहीं जान सका-नीचे गिरते हुए और सोखे हुए जल बिन्दुओं के मुक्ति प्रेम को ! औ रेत की समरस नृशंसता को किन्तु मैने देखा कि अब घड़ा खाली है! ७. स्वप्न सृष्टि देर रात के घुप अंधेरे में कबूतर आया अपने नीड़ में मंगल प्रभात का स्वप्न टूट गया आला खाली था केवल अंडे थे उनका पोषण करने वाली नहीं थी वह निराश चारों ओर घूमा पर उसे नहीं पा सका मैंने उसकी निराश-करुण आखों में झांका उसकी मूक वेदना को पढ़ा और आत्मा को टटोला मुझे स्मरण हो आई वह वाणी जहां संयोग है वहां वियोग भी होगा जो संयोग में सुखी है वह वियोग में दुःखी होगा संयोग-वियोग से ऊपर उठ सके ऐसी अनुभूति उसमें कहां! वियोगी कबूतर रो रहा था अब अपने अण्डे भी उसके लिए भार थे मां ही ममता का प्रेम दे सकती पिता नहीं किन्तु यह भार उस बिल्ली को नहीं लगा जिसने कबूतर की स्वप्न सृष्टि को एक ही झपट में उठा लिया था ८. वसुधैव कुटुम्बकम् शत्रु वह नहीं जो हमारे ही जैसा है मनुष्य मनुष्य जैसा है इसलिए मनुष्य मनुष्य का शत्रु नहीं ! दीप आलोक देता है भले ही वह पूरब का हो या पश्चिम का आलोक का शत्रु आलोक नहीं हो सकता!
११. वसन्त फिर आएगा एक बूढा सूखे वृक्ष से बोला ओह ! यह क्या ! फल नहीं, फूल नहीं, एक पल्लव भी नहीं ! नंगी टहनियों से भला कैसी शोभा ? वाह रे पतझड़ ! कैसा बुरा हाल किया ! वृक्ष बूढ़े की झुर्रियों पर मुस्कराया और उसकी मूर्खता पर हंसकर कहने लगामनुज ! बसन्त फिर आएगा ! यौवन नहीं
१२. बहुत से क्या बहुत से क्या एक चिंगारी चाहिए कोयले स्वयं धधक उठेगे! बहुत से क्या एक बीज चाहिए वृक्ष स्वयं खिल उठेगे ! बहुत से क्या एक हिलोर चाहिए मन स्वयं महक उठेंगे! बहुत से क्या एक मनुष्य चाहिए मनुष्यता स्वयं निखर उठेगी!
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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