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उत्तम खम गुण गण सहयारी । उतम खम मुणि विद पयारी॥ उत्तम खम बहुयन चिन्तामणि ।
उत्तम खम सर्व जह मणि ।। उत्तम क्षमा गुणों के समूह के साथ रहने वाली है अर्थात् उत्तम क्षमा के होने से अनेक गुण प्रगट हो जाते हैं । यह उत्तम क्षमा मुनियों को बड़ी प्यारी है । श्रेष्ठ मुनिजन इसका पालन करते हैं । यह उत्तम क्षमा विद्वानों के लिये चिन्तामणि रल के समान इच्छित पदार्थों को देने वाली है। इसी तरह विद्वानों को उत्तम क्षमा से इच्छित ज्ञानादिक प्राप्त होते हैं । ऐसी यह उत्तम क्षमा चित्त की एकाग्रता होने से उत्पन्न हो जाती है । क्षमा वोरस्य भूषणम्
क्षमा धर्म वीर पुरुष का भूषण है। जिनके पास क्षमारूपी शस्त्र है, उनका शत्रु क्या कर सकता है ? वैरी को जीतने में देर नहीं लगती । क्षमावान् मनुष्य हमेशा सुखी रहता है । क्षमा वाले पुरुष का संसार में कोई भी शत्रु नहीं है।
क्षमावान् पुरुष हमेशा गम्भीर रहता है । क्रोधी मनुष्य हमेशा दुबला-पतला रहता है। क्रोधी मनुष्य का कोई भी विश्वास नहीं करता। क्रोधी अपने और पर का भी घात कर डालता है। क्रोधी मनुष्य की आँख हमेशा लाल रहती है। जिस समय उसको क्रोध आता है तब उसका सारा शरीर कांप उठता है और उसको सुध-बुध नहीं रहती, अनेक अनर्थ कर बैठता है आर धर्म-कर्म आदि सभी बातों को भूल जाता है।
धैर्य
सात्त्विक प्रवृत्ति का मनुष्य धृतियुक्त होता है । अनेक विघ्न आने पर भी उसकी अन्तःकरण प्रवृत्ति में तिलमात्र भी अंतर नहीं पडता, खेद-खिन्न नहीं होता। वह शान्तिपूर्वक सभी विघ्नों को सह लेता है। इस प्रकार शांति पाने के लिये संयम का अभ्यास करना पड़ता है। इसके अभ्यास के लिए तथा अपनी इन्द्रियों को काबू में लाने के लिये बाहरी विषय-लोलुपता को घटाना आवश्यक है। इन्द्रिय-वासना कम होने पर द्रव्य के प्रति लालसा घट जाती है । तब क्रोध की मात्रा भी कम होती जाती है। अपनी आत्मा में उत्सुकता और शरीरादि पर-द्रव्य में निरुत्सुकता होती है। इस स्थिति में व्यक्ति संपूर्ण प्राणी मात्र को अपने समान मानता है, और पर को पर वस्तु । व्यक्ति के जब मन में शत्रु या मित्र के प्रति समानता होती है तब वह दूसरे जीवों के प्रति क्रोध या द्वेष व अहंकार भावना नहीं करता। क्रोध ही महान् शत्र है। यह क्रोध चारों गतियों में भ्रमण कराने वाले कौन-कौन से अनर्थ नहीं करता? इसलिये सज्जन पुरुष क्रोध से दूर रहता है। ज्ञानी सज्जन पुरुष पर यदि कोई शत्रु दुष्टता से प्रहार करे या अनेक उपद्रव खड़े कर दे तो भी वह अपनी क्षमावृत्ति का कभी त्याग नहीं करता । जैसे कहा भी है कि
दग्धं दग्धं त्यजति न पुनः कांचनं दिव्यवर्णम् । घृष्टं घृष्टं त्यजति न पुनश्चंदनं चारुगन्धम् ॥ खंड खंडं त्यजति न पुनः स्वादुतामिक्ष दंडम् ।
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम् ॥ बार-बार जलाये और तपाये जाने पर भी सोना अपने सौन्दर्य को नहीं छोड़ता बल्कि जितना तपाया जाता है उतना ही चमकता है । बार-बार घिसने पर भी चन्दन अपना स्वभाव न छोड़कर सुगन्ध को ही फैला देता है। ईख (गन्ना) टुकड़े-टकडे करने पर अपने मीठेपन को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार उत्तम पुरुषों की प्रकृति किसी भी अवस्था में विकारमय नहीं होती।
अर्थात् कैसी भी आपत्ति आने पर जो क्षमावान् मनुष्य अपने स्वभाव से च्युत नहीं होता और शान्तिपूर्वक अपने ऊपर आई हुई आपत्ति को सहन कर धैर्यशाली या बलशाली बन जाता है, उसी को लोग शूरवीर कहते हैं । पूर्व जन्म में किये हुए कर्म का बदला यह मनुष्य मुझ से ले रहा है सो कोई बात नहीं । क्योंकि मैंने पूर्व जन्म में इसके साथ क्रोध किया होगा इसलिए मुझसे बदला ले रहा है। यदि कोई मुझे पापी, चांडाल, अन्यायी, अत्याचारी, असभ्य, कुवचन बोलता है तो कोई हर्ज नहीं है। इससे मेरे कर्म की निर्जरा ही होती है।
यदि सज्जन क्षमावान् मनुष्य को कोई दुर्वचन कहे या अकुलीन कहे तो वह अपने मन में ऐसा विचार करता है कि ये तो मेरा नाम ही नहीं है, और जाति नहीं है। मैं तो परम पवित्र स्वरूप आत्म-ज्योतिरूप परमानन्द अविनाशी परब्रह्मस्वरूप परमात्मा रूप हूं। वही मेरा आत्मा है । आत्मा का नाम तो नहीं है। फिर मुझे गाली से, निंदा से, दुर्वचनों से उन पर क्रोध करना उचित नहीं। फिर
अमृत-कण
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