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वह भी दार्शनिक पक्ष प्रधान रचना की, तब अनुवाद या टीका करने के नियमों को अधिक व्यापक बनाना पड़ता है। तब उद्देश्य रहता है कि मूल की गहराई में जाकर उसकी अर्थवत्ता को भाषा विशेष के पाठक तक सम्प्रेषित करना। और यह कार्य आचार्य श्री ने रत्नाकर शतक की व्याख्या में दायित्वपूर्वक निर्वाहित किया है।
समीक्ष्य पुस्तक 'रत्नाकर शतक' की टीका-व्याख्या और सम्पादन पर विचार करने से पहले मूल रचना के ग्रंथकार के बारे में परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। कवि ने अपने बारे में बहुत कम कहा है। अन्तःसाक्ष्य से कुछ संकेत मिलते हैं। अपने त्रिलोक शतक में 'मणिशेलंग तिड दुशाली' शतक का उल्लेख है। इससे ज्ञात होता है कि इन्होंने शतक त्रय की रचना शालिवाहन शक १४७६ (सन् १५५७) में की थी। रत्नाकर वर्णी कन्नड़ भाषा के मूर्धन्य साहित्यकारों में से हैं । आपका जन्म कर्णाटकीय भूभाग में तुलुदेश के मूडविद्री में किसी सूर्यवंशी राजा देवराज के घर १६ वीं शती के मध्य । हुआ था। आपने अपने गुरु 'देवेन्द्रकीति' का उल्लेख रत्नाकर शतक के १०८ वें श्लोक में किया है—'श्रीमद्देवेन्द्रकीति योगेश्वर पादांभोजभृगायमान श्रृंगार कवि राजहंस विरचित रत्नाकर सपाद शतकसमाप्तम् ।' कहीं-कहीं इनके गुरु का उल्लेख महेन्द्रकीर्ति भी मिलता है। आचार्य देशभूषण जी ने तर्कयुक्त प्रमाण देकर बताया है कि देवचन्द्रकृत 'राजा बलि की कथा' के अनुसार देवेन्द्र कीति और महेन्द्र कीर्ति दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। इनके अन्य नामों का उल्लेख है-अण्ण, वर्णी, सिद्ध आदि।
रत्नाकर वर्णी अपने विषय के पारगामी विद्वान थे। आपने अपनी किशोर वय में ही गोम्मटसार की केशववर्णी टीका, कुन्दकुन्दाचार्य के अध्यात्मिक ग्रन्थ, अमृतचन्द्र सूरि कृत समयसार नाटक, पद्मनन्दि कृत स्वरूप सम्बोधन, इष्टोपदेश आदि ग्रन्थों का अध्ययन-मनन कर लिया था। वास्तव में आचार्य और मुनि परम्परा की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इन्होंने अध्यात्म और सिद्धान्त को जीवन की व्यावहारिकता में साकार करने का प्रयत्न किया है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम यह हुआ है कि इनकी अभिव्यक्ति से, आध्यात्मिक चेतना से जनमानस की रुचि सुसंस्कृत होती रही है। शृंगार के अश्लील पक्ष को कह-सुनाकर हठात् उनमें अध्यात्म चेतना का अर्थ भरकर कवि-कलाकार की हैसियत से सामाजिक की मानसिकता को विकृति से नहीं भरा है। इसलिए इनकी रचना का लक्ष्य उद्देश्यपूर्ण और सांसारिक आचरण की कोई-न-कोई गहन समस्या ही रहा है। इन तत्त्व मनीषियों की दृष्टि सत्य की चरम खोज करना है। जैन तत्त्वज्ञान की एक विशेषता और भी रही है कि उसमें वर्णित सत्य साक्षात्कार की दार्शनिक दृष्टि में अनेकान्त अथवा स्याद्वादीय पक्ष भी प्रमुख रहा है, जो जीवन की व्यावहारिकता को पोषित करता है। जैन अध्यात्म में आत्मा की अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख की स्वीकृति है। फलस्वरूप जैनाचार्य-कवि शुष्क अध्यात्म के पोषक नहीं हैं। इसलिए जैन-रचनाकारों में केवल वैराग्यधारक मुनि-आचार्य ही नहीं हैं, गृहस्थ विद्वान् और भट्टारक भी हैं । ये रचनाकार व्यवसायी रचनाकार नहीं थे, जो राजवर्ग, धनिक वर्ग की सन्तुष्टि में लगे हों। इन्होंने जो कुछ लिखा वह स्वान्तःसुखाय ही लिखा, जिसमें स्वतः ही जनकल्याण निहित था। ऐसा करते हुए सहज ही उच्छृखल वृत्ति , दम्भ और प्रदर्शन वृत्ति का शमन तो हुआ ही, परम्परा और मर्यादा के निर्वाह से पाठक-श्रोता वर्ग की अस्मिता जागृत बनी रहकर कल्याणोन्मुख रही।
रत्नाकर वर्णी इसी विचारमाला के पुष्प हैं। इनकी रचनाओं में तीन शतक-१. रत्नाकर शतक (अन्य नाम रत्नाकराधीश्वर शतक),२. अपराजित शतक, ३. त्रैलोक्येश्वर शतक प्रसिद्ध हैं। तीनों शतकों में १२८-१२८ श्लोक हैं। इनका वर्ण्य विषय है-अध्यात्म, नीति, वैराग्य, वेदान्त और त्रिलोक सम्बन्धी ज्ञान । अन्य रचनाएं हैं-१. भरतेश वैभव तथा २. सोमेश्वर शतक । 'भरतेश वैभव' में योगिराज चक्रवर्ती भरत का जीवनचरित गुम्फित है। इसमें वैराग्य के साथ शृंगार का समन्वय है। इसी रचना के आधार पर रत्नाकरवर्णी को 'श्रृंगार कविराजहंस' भी कहा गया है । यह काव्य कन्नड़ भाषा के काव्यों में महत्त्वपूर्ण और महाकाव्य के गुणों से मंडित माना गया है। सोमेश्वर शतक' काव्य कवि की उस काल की रचना है जब उसने जैन मत छोड़कर शैवमत स्वीकार कर लिया था। इसमें भी तत्त्व चिन्तन तो जैन धर्मावलम्बी ही है, किन्तु यह शिव को सम्बोधित करके लिखा गया है । इसके प्रत्येक पद्य के अन्त में 'हरहरा सोमेश्वरा' पदांश जोड़ा गया है।
_ 'रत्नाकर शतक' के वर्ण्य विषय के रूप में इसमें जैन तत्त्व ज्ञान का आधार लिया गया है। कवि का मन्तव्य है कि मनुष्य को वास्तविक शान्ति 'धर्म' पुरुषार्थ के सेवन द्वारा ही सम्भव है। 'अर्थ' और 'काम' पुरुषार्थ महत्त्वपूर्ण होते हुए भी आंशिक सुख दे पाते हैं। वास्तविक धर्म तो आत्म धर्म ही है। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि 'रत्नाकर शतक' का वर्ण्य विषय वैराग्य, नीति और आत्मतत्त्व निरूपण है। दूसरे 'अपराजित शतक' में अध्यात्म और वेदान्त का विस्तार सहित प्रतिपादन है। तीसरे 'त्रैलोक्येश्वर शतक' में भोग और त्रैलोक्य के आकार-प्रकार और विस्तार का वर्णन है। प्रत्येक शतक में १२८ पद्य हैं। 'रत्नाकर शतक' की आचार्य देशभूषण जी द्वारा की गई व्याख्या को पढ़कर लगता है कि स्वयं कवि ने संसार, आत्मा और परमात्मा के त्रक का अनुभव गहराई से किया है और उसी अनुभव को रचनाबद्ध किया है। इसके प्रत्येक पद्य में आत्मरस छलकता है। स्वयं देशभूषण जी का अभिमत है कि इस रचना पर समयसार, आत्मानुशासन और परमात्म प्रकाश की छाया स्पष्ट लक्षित है। किन्तु, इन रचनाओं के तत्त्व ज्ञान को कवि ने अपने अनुभव के सांचे में ढालकर नया नाम-रूप प्रदान किया है। स्वयं आचार्य जी के शब्दों में-"इस ग्रन्थ में अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों का सार है। इसके अन्तः स्तल में प्रवेश करने पर प्रतीत होता है कि कवि ने वेदान्त और उपनिषदों का भी अध्ययन किया है और उस अध्ययन से प्राप्त ज्ञान का उपयोग, जैन मान्यताओं के अनुसार आठवें, नवें और दसवें पद्य में किया है । अकेले रत्नाकर शतक के अध्ययन से अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों का सार ज्ञात होता है।"
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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