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मेरुमंदर पुराण
------भारतीय जन-मानस को सांस्कृतिक धरोहर से सम्पक्त करने वाली कृति
समीक्षक : डॉ. रवीन्द्रकुमार सेठ
दिगम्बर जैन धर्म के प्रायः सभी महान् आचार्यों का आविर्भाव दक्षिण भारत में हुआ। जैन गुरुओं ने जन-मानस और राजवंश दोनों को धर्म के मार्ग की ओर प्रवृत्त किया; अपने त्यागमय जीवन, ज्ञानराशि तथा जनसेवा के समन्वय द्वारा समाज में अपना विशिष्ट महत्त्व प्राप्त किया। तमिल के आदि ग्रन्थ 'तिरुक्कुरल' और व्याकरण 'तोलकाप्पियम्' जैसे ग्रन्थों में उपलब्ध जैन-चितन इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि तमिल भाषा एवं साहित्य के कला एवं भाव पक्ष दोनों पर जैन विचारधारा का निश्चित प्रभाव है। तिरुक्कुरल में 'एनगुनत्तन्' (अष्ट गुण सम्पन्न), मलरमिस इ एहिनान्' (कमल पर चलने वाला) इत्यादि के प्रयोग के आधार पर तथा अनेक अन्य प्रमाणों का सविस्तार विवेचन करके श्री ए. चक्रवर्ती ने इसे जैन रचना ही स्वीकार किया है। इस विषय में यद्यपि पर्याप्त मतभेद हैं पर निःसन्देह जैन धर्म के मूल तत्त्वों एवं चितनधारा का उल्लेख महाकाव्य 'शिलप्पदिकारम्' में सविस्तार हुआ है। यह भी स्पष्ट है कि तमिल साहित्य के इतिहास-लेखकों ने प्रायः शैव और वैष्णव भक्ति-परम्पराओं का तो अध्ययन किया है पर जैन धर्म के विषय में उल्लेख अत्यल्प हैं। तिरुभंगै आक्वार का जैन मतावलम्बियों से शास्त्रार्थ, सम्बन्धर द्वारा जैन धर्म के मानने वालों का शैव बनाया जाना तथा पेरियपुराणम् में वर्णित जैनों पर हुए अत्याचारों में चाहे कितनी भी अतिशयोक्ति हो, इस धर्म के मतावलम्बियों का तमिल प्रदेश में अस्तित्व, उनका जीवन, चितन और संघर्ष प्रकारान्तर से हमारे समक्ष उभर कर आ जाता है।
आधुनिक जैन समाज की परम विभूति धर्मप्राण आचार्यरत्न श्री श्री १०८ देशभूषणजी महाराज द्वारा इसी विशाल जैन साहित्य की परम्परा में से एक ग्रन्थ 'मेरु पुराण' का मूल तमिल से अनुवाद और व्याख्या एक असाधारण कार्य है । इसके अनुवाद में उनकी आध्यात्मिक ऊंचाई एवं दार्शनिक विचार-प्रक्रिया का अद्भुत समन्वय हुआ है। एक अनासक्त कर्मयोगी की भांति राष्ट्र के रचनात्मक निर्माण में संलग्न मर्मज्ञ विद्वान् श्री देशभूषण जी के कार्य को जन-मानस से परिचित करवाने का अवसर प्राप्त कर मैं स्वयं को धन्य मानता हूं। मेरु मंदर पुराण तमिल भाषा में विरचित ग्रंथ है जिसे किन्हीं श्री वामनाचार्य ने रचा था। जयपुर चातुर्मास के समय आचार्य जी ने संवत् २०२८ में इसकी हिन्दी टीका की और संवत् २०२६ में इसका प्रकाशन हुआ। ५१० पृष्ठों के इस ग्रन्थ में मूल तमिल का देवनागरी लिप्यंतरण, अनुवाद और विस्तृत हिन्दी टीका प्रस्तुत की गई है । वामनाचार्य के जीवन, समय इत्यादि के विषय में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं । हां, यह निश्चित है कि आप तमिल तथा संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। कांचीपुरम् के निकट तिरुपति कुण्ड्र नामक गांव के प्राचीन जैन वृषनाथ भगवान् के मन्दिर में इस विषय में एक अस्पष्ट शिलालेख उपलब्ध है।
ग्रन्थ के समग्र १२ अध्यायों की कथा का सार प्रारम्भ में २० पृष्ठों में देने के उपरान्त ग्रन्थ के प्रत्येक पद की सविस्तार टिप्पणियां अपने आप में एक अनुभव है । जैन धर्म की गहन तात्त्विक समीक्षा, सहज सरल भावपूर्ण शब्दावली में हृदय के अन्तस्तल को छू लेती है। यह मात्र धर्म-ग्रन्थ नहीं है, इसमें अद्भुत् प्रकृति-वर्णन, मानव-स्वभाव चित्रण, जीवन-संघर्ष, तपश्चर्या के मार्ग में आने वाले अनेक कष्ट आदि का सहज, स्वाभाविक चित्रण हुआ है, पर धार्मिक दृष्टि सर्वोपरि है। शिवभूति मंत्री और भद्रमित्र की कथा के माध्यम से कंचन के दुष्प्रभाव, धन और रत्न के लोभ का कुपरिणाम और न्याय के महत्त्व का प्रतिपादन हुआ है। तीव्र परिग्रह की लालसा करने वाले मनुष्य तृष्णा के द्वारा संपत्ति का उपार्जन करने के लिए जो विभिन्न प्रयास करते हैं उनका विवेचन करते हुए कहा गया है कि अपहरण, चोरी आदि विधियों से प्राप्त संपत्ति शीघ्र नष्ट होती है, यशकीति का नाश होता है; धैर्य, ऐश्वर्य आदि नष्ट होता है।
कतिपय अन्य प्रसंगों का अवलोकन करें तो इस ग्रन्थ में जीवन के अनेक सत्य उद्घाटित हुए हैं। सभी प्रकार के जीवों का हित करना, दया धर्म का पालन, दूसरे के दुःख से करुणा भाव उत्पन्न होना, बदला लेने की भावना का त्याग आदि गुणों का विवेचन करते हुए शास्त्रदान, औषधदान, आहारदान और अभयदान आदि का प्रतिपादन हुआ है। एक प्रसंग में भाषा की गरिमा देखते ही बनती है-“जीव दया रूपी
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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