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उपदेश सार-संग्रह
-जयपुर चातुर्मास की अनूठी उपलब्धि
समीक्षक : श्री जगत भंडारी
प्रस्तुत पुस्तक में श्री १०८ देशभूषण जी महाराज के जयपुर चातुर्मास के प्रवचनों का सार संगृहीत किया गया है। प्रातः स्मरणीय, सकल गुण निधान, परमपूज्य, भारत गौरव, विद्यालंकार, धर्मनिष्ठ, स्वस्ति आचार्य रत्न, श्री १०८ आदि अनन्य उपाधियों से विभूषित देशभूषण जी महाराज का जीवन धर्म, स्वाध्याय, सदाचार, त्याग, संयम, सत्य, संकल्प, परोपकार, तप, विद्या, बुद्धि, विवेक और ज्ञान-तरंगों का असीम सागर है; यह निस्सन्देह इस पुस्तक को आद्योपान्त पढ़कर कहा जा सकता है । भक्तों के धर्म गुरु, जिज्ञासुओं के दिग्दर्शक, ज्ञानपिपासुओं के अक्षय निधि और सांसारिकों के मोक्षयान रूप में सद्य विराजमान महात्मा देशभूषण जी के अमृतकुण्ड रूपी मनोमय कोष से प्रसूत यत्र-तत्र बिखरे मणि-मानिकों की भांति संसार के अज्ञानतिमिर को तिरोहित करती उनकी प्रवचन-रश्मियों का प्रकाश-पुंज इस पुस्तक में दर्शनीय है।
मतवादों के दायरे से बाहर, धार्मिक वाद-विवादों से पृथक्, साहित्यिक एवं भाषायी गुटबन्दियों से निरपेक्ष रह कर इस पुस्तक को निष्पक्ष समीक्षात्मक भावना की कसौटी में कसने पर महात्मा देशभूषण जी उपरोक्त सभी विशेषणों के अधिकारी सिद्ध होते हैं । यह उनके तप, त्याग और स्वाध्याय का परिणाम भी है और उनके आराध्य का पावन प्रसाद भी।।
____ अहिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दी में इतने गूढ़ विषयों पर सरल, विमल व तर्कसंगत व्याख्यान वह महापुरुष ही दे सकता है जो स्वयं विवेक का पुंज हो। जैन सम्प्रदाय से सम्बन्धित होते हुए भी सभी भारतीय वेद, शास्त्र, पुराण तथा भागवत, रामायण, श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्भागवत इत्यादि महान् ग्रन्थों से लेकर आधुनिक राष्ट्रकवि स्व० मैथिलीशरण गुप्त की कृतियों तक का अध्ययन, मनन व स्मरण करना उसी महापुरुष का कार्य हो सकता है जो स्वयं सरस्वती मां का वरद पुत्र हो। जैन धर्म से लेकर वैदिक धर्म, भागवत धर्म, वैष्णव धर्म, आर्यसमाज, ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म, एकेश्वरवाद, बहुदेववाद, अवतारवाद, निर्गुण-सगुण आदि सभी धर्मों के गहरे अन्तस्तल तक वही महापुरुष पैठ सकता है जो सिन्धु के समान विशाल हो । साधु, ज्ञानी, गृहस्थ, व्यापारी, ठग, ठाकुर, चोर, जालसाज, न्यायाधीश, वकील, नेता, डाक्टर, अध्यापक, कामी, क्रोधी, लालची, मक्कार, याचक, वंचक, सरकारी नौकर, स्वामी-सेवक और शोषक-शोषित सभी के जीवन के यथार्थ का ज्ञान वही महापुरुष रख सकता है जिसका हृदय और मस्तिष्क पुष्प से भी कोमल हो और वज्र से भी कठोर । इस पुस्तक में यह सभी कुछ देखा जा सकता है। इसलिए ये प्रवचन महान् साधु की विलक्षण प्रतिभा के विभिन्न अध्याय हैं।
पुस्तक में विभिन्न विषयों से सम्बन्धित ८४ प्रवचन संग्रहीत हैं। इन प्रवचनों में जहां स्थान-स्थान पर जैन-सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है वहीं 'सर्वधर्म समभाव' की मर्यादा का आद्योपान्त निर्वाह किया गया है। पुस्तक में कहीं भी किसी धर्म पर आक्षेप नहीं किया गया है, अपितु उनकी विशेषताओं का बखान करते हुए अपने मत को प्रतिष्ठित किया गया है। इस प्रकार की शैली द्वारा प्रातःस्मरणीय श्री देशभूषण जी महाराज ने अपनी भावनाओं की प्रभावी प्रतिष्ठा भी कर दी और किसी अन्य धर्म पर कोई आक्षेप या कटाक्ष भी नहीं किया।
चाहे किसी भी प्रसंग के प्रवचन पढ़िये, मिलेगी बोलचाल की सुस्पष्ट चुटीली भाषा, विश्लेषित भाव, पौराणिक अथवा लौकिक व्यावहारिक कहानी-किस्से और नीतिशतक अथवा अन्य संस्कृत ग्रन्थों के श्लोक एवं तुलसी, कबीर, सूर, मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं के अंश अथवा शेरो-शायरी। कहीं भी कोई भेद नहीं, कुछ भी त्याज्य नहीं और इस समुद्र-मन्थन से हाथ लगते हैं ज्ञान के रत्न।
उदाहरण के लिए 'परोपकार' प्रसंग पर महाराज के प्रवचनों का अवलोकन करें (देखिये पृष्ठ २३०)। विषय की भूमिका बांधते हुए वे कहते हैं-"संसारवर्ती समस्त जीव मोहनीय कर्म से मोहित होकर न तो स्व-उपकार करते हैं न पर उपकार । मोहभाव के कारण उनको जब आत्मश्रद्धा ही नहीं है तो आत्महित की बात उनको सूझेगी भी कैसे।.." इत्यादि । अपनी इस गूढ़ बात को सामान्य बनाते हुए वे कहते हैं-"अपनी समझ से प्रत्येक प्राणी स्वार्थ-साधन में लगा हुआ है, माता के ऊपर भी जब विपत्ति आती है तो अपने आप को बचाने के लिए अपने
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