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णमोकार ग्रन्थ
-जिन-वाणी और आत्म-प्रकाश को मशाल
समीक्षक : श्रीमती नीरा जैन
वर्तमान युग अति भौतिकवादी, बुद्धिवादी, वैज्ञानिक स्तर पर प्रगति के चरम शिखर को छूकर भी मानव का अन्तरतम नहीं छु सका है। आध्यात्मिक विकास और मन की सच्ची शान्ति की खोज में मनुष्य निरन्तर भटक रहा है। सर्वत्र मानव मूल्यों का अवमूल्यन, चरित्र का नैतिक पतन, धर्म में बाह्याडम्बरों और मृत परम्पराओं का समावेश, सामाजिक, राजनैतिक मर्यादाओं का उल्लंघन जैसी संक्रमणशील एवं विघटनकारी परिस्थितियों से मनुष्य को संघर्ष करना पड़ रहा है क्योंकि समस्त मूल्य व आदर्श अपनी अर्थवत्ता खोकर खोखलेपन की गहरी खाई में विलीन होते जा रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि जब कभी किसी भी युग में मानवता और धर्म को इस तरह की परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है कि उसका अस्तित्व ही संकट में पड़ने लगे तब विश्व स्तर पर मानवता और धर्म, साहित्य और संस्कृति की रक्षा हेतु महान् आत्माओं ने इस पृथ्वी पर कवच स्वरूप जन्म लिया है तथा अपना सम्पूर्ण जीवन मानव जाति के कल्याण में समर्पित कर दिया है-चाहे उन्हें समाज, शासन के विरोध और दैवी प्रकोपों का सामना करना पड़ा, किन्तु उन्होंने अपने कर्तव्य पथ से विचलित हुए बिना धर्म और मानव कल्याण का मार्ग नहीं छोड़ा।
आज सर्वत्र पाशविक और आसुरी वृत्तियों का ताण्डव हो रहा है। लोक रुचि भी भोगाकांक्षी और विषय-लोलुपता एवं द्रव्य-दासता की ओर अग्रसर है, असंयम के कीटाणु व्याप्त हैं। इन स्थितियों में बालब्रह्मचारी, प्रकाण्ड विद्वान, सत्य, अहिंसा और प्रेम का प्रकाश फैलाने वाले दिगम्बराचार्य श्री देशभूषण महाराज जी ने ही अपने सदुपदेशों से भटकी मानवता का मार्ग-दर्शन किया। उन्होंने अपने पावन करकमलों से जैन धर्म के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन कर प्रकाशित कराया तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किया जिससे जैन धर्म को व्यापक धरातल प्राप्त हुआ। आचार्य श्री संस्कृत, कन्नड़, मराठी, प्राकृत और हिन्दी भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् हैं। इनके महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं-भूवलय ग्रन्थ, भावना सार, शास्त्रासार समुच्चय, चौदह गुण स्थान चर्चा, णमोकार मन्त्र कल्प, विवेक मंजूषा, स्तोत्र सार संग्रह, दश लक्षण धर्म, त्रिकाल दर्शी महापुरुष, भगवान महावीर और उनका समय, तात्त्विक विचार आदि। इनका योगदान अविस्मरणीय है।
णमोकार ग्रन्थ' जैन साहित्य की अनुपम निधि और आचार्य देशभूषण महाराज के दैदीप्यमान प्रतिभा पुंज की एक ऐसी किरण है जिसमें मोहग्रस्त संसारी व्यक्ति के संतप्त मन को मुक्ति पथ का दर्शन होता है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश कभी लुप्त नहीं होता उसी प्रकार आचार्य जी द्वारा प्रणीत एवं सम्पादित सामग्री सूर्य के प्रकाश की भांति सनातन है, शाश्वत है। इस ग्रन्थ में जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्तों और रत्नत्रय के स्वरूप, जैन तीर्थंकरों से सम्बद्ध कथाओं, तीर्थस्थलों एवं प्रमुख धर्म सूत्रों का रहस्योद्घाटन अत्यन्त सरल भाषा में किया गया है जिसके अध्ययन-मनन से मनुष्य अपनी आत्मा का उद्धार कर सकता है। यह ग्रंथ अपने मूल रूप में खण्डेलवाल जाति के दिल्ली वासी लक्ष्मीचन्द बैनाड़ा द्वारा संवत् १६४६ में संकलित किया गया था किन्तु अप्रकाशित होने के कारण सभी श्रावकों की पहुंच से परे था। इसे पुनः नवीन रूप में संपादित करने का प्रयास स्तुत्य और अभिनन्दनीय है जिसका श्रेय आचार्य श्री देशभूषण जी को है जिन्होंने अनथक परिश्रम और साधना द्वारा इस ग्रन्थ को पुनः संपादित कर प्रकाशित कराया। यह ग्रंथ ढुंढारी और खड़ीबोली मिश्रित भाषा में लिखा गया है किन्तु आचार्य जी ने इस भाषा को परिमार्जित किन्तु सरल रूप देकर सर्वजन सुलभ बना दिया है।
यह ग्रंथ दो अध्यायों में विभक्त है-प्रथम में णमोकार मन्त्र के माहात्म्य और उससे सम्बद्ध पंच परमेष्ठियों का स्वरूप-विवेचन किया गया है तथा दूसरे में रत्नत्रय का वर्णन है। जैन धर्म के इस महत्त्वपूर्ण ग्रंथ द्वारा पतनोन्मुख मानव जाति को आत्मदर्शन द्वारा आत्मकल्याण की प्रेरणा दी गई है। इसमें जीवोद्धार का मूल कारण जिनधर्म का णमोकार मंत्र माना गया है । इसके नित्य चिन्तन, वन्दन, स्मरण से ही आत्मा सांसारिक दुःखों से मुक्त हो सकती है। यह मंत्र तो इतना चमत्कारी है कि मानव ही क्या अन्य प्राणी जगत् का कोई भी जीव इसके श्रवण मात्र से शान्त भाव से प्राण त्याग कर सद्गति प्राप्त करता है। अनादि काल से रागद्वेष, मोह, कषाय से युक्त होने के कारण जीव जो दुख भोगता रहा है, इंद्रिय भोगविलास द्वारा कर्म बन्धन की शृंखला को जो जटिल बनाता रहा है-इस मन्त्र के प्रभाव से वह इनसे
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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