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आज्ञा से बह खरीता शराब में घोलकर पी डाला गया था। अन्त में मोहम्मदशाह को अपनी अकर्मण्यता के कारण नादिरशाह के हाथ बन्दी होना पड़ा। लालकिले पर अधिकार करके नादिरशाह ने हुक्म दिया कि “मुगलिया खानदान की तमाम बेगमात मेरे आगे आकर नाचें।" यह नादिरशाही हुक्म सुनते ही बेगमों के हाथ के तोते उड़ गये, होशोहवास जाते रहे। भला जिन बेगमों के मखमली गद्दों पर चलने से पैर में छाले पड़ जावें, बगैर छिला अंगूर खालें तो कब्जियत हो जावे, चान्दनी रात में नंगे बदन निकलें तो बदन काला पड़ जावे, वह क्योंकर गैर मर्द के सामने नाचने को प्रस्तुत हो जाती? परन्तु हील-हुज्जत बेकार थी। नादिरशाह का हुक्म साधारण हुक्म नहीं था। अन्त में लाचार उन्हें नादिरशाह के सामने जाना पड़ा। नादिरशाह को नींद आ गई थी, सिरहाने खंजर रक्खा हुआ था, बेगमें पसोपेश में थों, आँख खुलते ही नाचना होगा। नादिरशाह की आँख खुली, तेवर बदल कर बोला-“चली जाओ मेरे सामने से, तुम्हारा नापाक साया पड़ने से कहीं मैं भी बुजदिल न बन जाऊँ। आह ! तुम अपने ऐशोआराम में फंसने से इतनी बुजदिल हो गई हो कि तुम्हें अपनी अस्मत का भी ख्याल नहीं है। भला जो बेगमें गैर मर्द के सामने जान बचाने की गर्ज से नाचने को तैयार हो सकती हैं, उनकी औलाद सल्तनत क्या खाक करेगी? बस, मुझे मालूम हो गया कि अब मुगलिया खानदान हिन्दोस्तान में बादशाहत नहीं कर सकेगा।"
धर्माचार्यों में अपने धर्म के प्रति कट्टरता का भाव देखकर वे दुःखी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में उनके मुखारविन्द से अनेकान्तमयी वाणी प्रस्फुटित हो उठती है--
“आज गृहस्थी मनुष्यों की बात तो जाने दीजिये। त्यागी साधुओं की दृष्टि भी आज निर्मल नहीं है। सब अपने-अपने सम्प्रदाय के साधुओं को ही श्रेष्ठ और चरित्रशील समझ बैठे हैं। दूसरे सभी उनकी दृष्टि में शिथिल हैं ? यह कैसी शोचनीय बात है? कोई मनुष्य गंगा में अपनी नाव चलाये या जमुना में, आखिर तो दोनों समुद्र में ही जाएँगे। लेकिन फिर भी कोई कहे कि गंगा में जाने से ही समुद्र में जाया जाय, जमुना में जाने से नहीं, तो क्या यह ठीक माना जायेगा। वास्तविक सत्य तो यह है कि अपनी चरित्ररूपी नाव मजबूत होनी चाहिए, फिर चाहे कोई किसी भी रास्ते से क्यों न जाय, अपने ध्येय पर पहुंच ही जाएगा। अत: यह सोचना कि हम जिस मार्ग से जा रहे हैं वह मार्ग ही सच्चा और अच्छा है, दूसरा नहीं, नितान्त भ्रामक है।” (मानव जीवन, पृष्ठ १६)
इसी प्रकार धर्म के मूल्यों को विस्मृत कर मांसाहार करने वाले सजातीय हिन्दुओं की सात्विक भावना को जाग्रत करने के लिए वे 'मानव जीवन' में कहते हैं
"हमारे हिन्दू भाइयो, अगर आपको भारत देश का उद्धार करना है तथा इस आर्य भूमि को पवित्र बनाना या वृद्धि करनी है तो इस भूमि को जिस महान् ऋषि, मुनि, राम, कृष्ण, वशिष्ठ, अर्जुन, परमहंस शुकदेव, भगवान् महावीर व स्त्रियों में सीता सती, द्रौपदी, अहिल्या आदि महान् स्त्री रत्नों ने जन्म लेकर पवित्र किया है, उन्हें हिंसा से कलंकित न कीजिये। अगर इनकी इज्जत रखना चाहते हैं तो इन पूज्य महापुरुषों की वाणी का ख्याल करिये और कृति में लाने का प्रयास करिये । अर्थात् अपने शास्त्रों के अनुसार मांसाहार तथा हिंसावृत्ति को बन्द करने से मानवमात्र का भला होता है और यही सच्चे सुख का एकमात्र मार्ग है । अपनी या अपने देश की भलाई करके जगत् को कल्याण मार्ग पर ले आना आवश्यक है और हमारा गौरव इसी में है।"
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के असाधारण व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रति आचार्य श्री के हृदय में श्रद्धाभाव है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में महात्मा गांधी द्वारा किये गए प्रयोगों के वे साक्षी रहे हैं। इसीलिए राष्ट्रनायकों से आचार्य श्री यह अपेक्षा करते हैं कि वे भी महात्मा गांधी के पदचिह्नों का अनुसरण कर विश्व में शान्ति स्थापना में सहयोग देंगे। आचार्य श्री के शब्दों में- "भाइयो, आज इस देश के कोनेकोने में जिस महात्मा गांधी की जय बोली जाती है, इस भारत देश को उसने अहिंसा रूपी शस्त्र को धारण करके ही गुलामी से मुक्त कराया। उन्होंने सभी देशवासियों को इसी मार्ग पर चलने की आज्ञा दी। इससे उत्तम कोई दूसरा मार्ग सुख और शान्ति का नहीं है।"
(मानव जीवन, पृष्ठ १२-१३) आज के मानव में परस्पर छिद्रान्वेषण एवं अविश्वास भाव का प्राधान्य देखकर आचार्य श्री को यह अनुभव होता है कि इस प्रकार के शंकायुक्त दृष्टिकोण से समाज एवं राष्ट्र के विकास में बाधा पहुंच रही है। धर्मोपदेशक एवं आचार्य होने के कारण आपने इस प्रकार के नकारात्मक चिन्तन को निरस्त करने के लिए कथामय उपदेश दिये हैं। उनके उद्बोधक उपदेशों की बानगी इस प्रकार है
(अ) “एक दिन छलनी ने सूई से कहा-बहिन, तेरे सिर में तो छेद है। बिचारी छलनी यह नहीं जानती थी कि उसके तो सिर में ही छेद है, पर मेरा तो सारा शरीर ही छेदों से भरा पड़ा है। यही हाल आज मनुष्य का है। वह दूसरों के दोष तो बड़ी आसानी से देख लेता है। पर यह नहीं देखता कि मैं कितने दोषों का भागी हूं।" (मानव जीवन, पृष्ठ १५) (आ) गुजरात के प्रसिद्ध कवि 'दलपत' ने अपनी एक कविता में कहा है
एक दिन एक ऊंट ने सियार से कहा, यह दुनिया तो बड़ी खराब है। सियार ने कहा-क्यों मामा, यह कैसे कहते हो?
सृजन-संकल्प
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